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________________ उत्तरखण्ड ] . आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापाशा' एकादशीका माहात्म्य - ६७३ ...re . . राजन् ! इस विधिसे आलस्यरहित होकर तुम 'इन्दिरा'का कर ले तो उसे कभी यम-यातना नहीं प्राप्त होती। जो व्रत करो। इससे तुम्हारे पितर भगवान् विष्णुके वैकुण्ठ- पुरुष विष्णुभक्त होकर भगवान् शिवको निन्दा करता है, धाममें चले जायेंगे। वह भगवान् विष्णुके लोकमें स्थान नहीं पाता; उसे भगवान् श्रीकृष्ण कहते है-राजन् ! राजा निश्चय ही नरकमें गिरना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई इन्द्रसेनसे ऐसा कहकर देवर्षि नारद अन्तर्धान हो गये। शैव या पाशुपत होकर भगवान् विष्णुको निन्दा करता है राजाने उनको बतायी हुई विधिसे अन्तःपुरकी रानियों, पुत्रों तो वह घोर रौरव नरकमें डालकर तबतक पकाया जाता और भृत्योसहित उस उत्तम व्रतका अनुष्ठान किया। है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी आयु पूरी नहीं हो जाती। कुन्तीनन्दन ! व्रत पूर्ण होनेपर आकाशसे फूलोंकी वर्षा यह एकादशी स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाली, शरीरको होने लगी। इन्द्रसेनके पिता गरुडपर आरूढ़ होकर नौरोग बनानेवाली तथा सुन्दर स्त्री, धन एवं मित्र श्रीविष्णुधामको चले गये और राजर्षि इन्द्रसेन भी देनेवाली है। राजन् ! एकादशीको दिनमें उपवास और अकण्टक राज्यका उपभोग करके अपने पुत्रको राज्यपर रात्रि जागरण करनेसे अनायास ही विष्णुधामकी प्राप्ति बिठाकर स्वयं स्वर्गलोकको गये। इस प्रकार मैंने तुम्हारे हो जाती है। राजेन्द्र ! वह पुरुष मातृ-पक्षकी दस, सामने 'इन्दिरा' व्रतके माहात्म्यका वर्णन किया है। इसको पिताके पक्षकी दस तथा स्त्रीके पक्षकी भी दस पढ़ने और सुननेसे मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। एकादशी व्रत करनेवाले र युधिष्ठिरने पूछा-मधुसूदन ! अब कृपा करके मनुष्य दिव्यरूपधारी, चतुर्भुज, गरुड़की ध्वजासे युक्त, यह बताइये कि आश्विनके शुक्रपक्षमें किस नामकी हारसे सुशोभित और पीताम्बरधारी होकर भगवान् एकादशी होती है? विष्णुके धामको जाते हैं। आश्विनके शुक्लपक्षमें भगवान् श्रीकृष्ण बोले-राजन् ! आश्विनके पापाङ्कशाका व्रत करनेमात्रसे ही मानव सब पापोंसे मुक्त शुक्रपक्षमे जो एकादशी होती है, वह 'पापाङ्कशा' के हो श्रीहरिके लोकमें जाता है। जो पुरुष सुवर्ण, तिल, नामसे विख्यात है। वह सब पापोंको हरनेवाली तथा भूमि, गौ, अन्न, जल, जूते और छातेका दान करता है, उत्तम है। उस दिन सम्पूर्ण मनोरथकी प्राप्तिके लिये वह कभी यमराजको नहीं देखता। नृपश्रेष्ठ ! दरिद्ध मनुष्योंको स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले पुरुषको भी चाहिये कि वह यथाशक्ति स्रानदान आदि पद्मनाभसंज्ञक मुझ वासुदेवका पूजन करना चाहिये। क्रिया करके अपने प्रत्येक दिनको सफल बनावे।* जो जितेन्द्रिय मुनि चिरकालतक कठोर तपस्या करके जिस होम, स्नान, जप, ध्यान और यज्ञ आदि पुण्यकर्म फलको प्राप्त करता है, वह उस दिन भगवान् करनेवाले हैं, उन्हें भयंकर यमयातना नहीं देखनी गरुड़ध्वजको प्रणाम करनेसे ही मिल जाता है। पृथ्वीपर पड़ती। लोकमें जो मानव दीर्घायु, धनान्य, कुलीन और जितने तीर्थ और पवित्र देवालय हैं, उन सबके सेवनका नीरोग देखे जाते हैं, वे पहलेके पुण्यात्मा है। पुण्यकर्ता फल भगवान् विष्णुके नामकीर्तनमात्रसे मनुष्य प्राप्त कर पुरुष ऐसे ही देखे जाते हैं। इस विषयमें अधिक कहनेसे लेता है। जो शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले सर्वव्यापक क्या लाभ, मनुष्य पापसे दुर्गतिमे पड़ते हैं और धर्मसे भगवान् जनार्दनको शरणमें जाते हैं, उन्हें कभी स्वर्गमें जाते हैं। राजन् ! तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, यमलोककी यातना नहीं भोगनी पड़ती। यदि अन्य उसके अनुसार पापाङ्कशाका माहात्म्य मैंने वर्णन किया; कार्यके प्रसङ्गसे भी मनुष्य एकमात्र एकादशीको उपवास अब और क्या सुनना चाहते हो? * अवन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दरिद्रोऽपि नृपोतम । समाचरन् यथाशक्ति सानदानादिकाः क्रियाः ॥ (६१ ॥ २४-२५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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