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________________ सृष्टिखण्ड] • पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकळा. पीढ़ियोंके साथ स्वर्गलोकमें जायेंगे। वह तीर्थ पितरोंको और नगारोंकी ध्वनि तथा मङ्गलघोष होने लगा, जिसकी बहुत ही प्रिय है, वहाँ एक ही पिण्ड देनेसे उन्हें पूर्ण तृप्ति आवाजसे सारा जगत् गूंज उठा। सरस्वती अपने तेजसे हो जाती है। वे पुष्करतीर्थक द्वारा उद्धार पाकर सर्वत्र प्रकाश फैलाती हुई चली। उस समय गङ्गाजी ब्रह्मलोकमें पधारते हैं। उन्हें फिर अत्र-भोगोंकी इच्छा उसके पीछे हो ली। तब सरस्वतीने कहा-'सखी ! तुम नहीं होती, वे मोक्षमार्गमें चले जाते हैं। अब मैं सरस्वती कहाँ आती हो? मैं फिर तुमसे मिलेंगी।' सरस्वतीके नदी जिस प्रकार पूर्ववाहिनी हुई, वह प्रसङ्ग बतलाता ऐसा कहनेपर गङ्गाने मधुर वाणीमे कहा-'शुभे! अब हूँ सुनो। तो तुम जब पूर्वदिशामें आओगी तभी मुझे देख पहलेकी बात है, एक बार इन्द्र आदि समस्त सकोगी। देवताओंसहित तुम्हारा दर्शन तभी मेरे लिये देवताओंकी ओरसे भगवान् श्रीविष्णुने सरस्वतीसे सुलभ हो सकेगा।' यह सुनकर सरस्वतीने कहाकहा-'देवि! तुम पश्चिम-समुद्रके तटपर जाओ और 'शुचिस्मिते ! तब तुम भी उत्तराभिमुखी होकर शोकका इस बडवानलको ले जाकर समुद्र में डाल दो। ऐसा परित्याग कर देना।' गङ्गा बोली-'सखी! मैं करनेसे समस्त देवताओंका भय दूर हो जायगा। तुम उत्तराभिमुखी होनेपर अधिक पवित्र मानी जाऊँगी और माताकी भांति देवताओंको अभय-दान दो।' सबको तुम पूर्वाभिमुखी होनेपर। उत्तरवाहिनी गङ्गा और उत्पन्न करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुकी ओरसे यह आदेश पूर्ववाहिनी सरस्वती में जो मनुष्य श्राद्ध और दान करेंगे, मिलनेपर देवी सरस्वतीने कहा-'भगवन् ! मैं स्वाधीन वे तीनों ऋणोंसे मुक्त होकर मोक्षमार्गका आश्रय नहीं हूँ आप इस कार्यके लिये मेरे पिता ब्रह्माजीसे लेंगे-इसमें कोई अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता अनुरोध कीजिये। पिताजीकी आज्ञाके बिना मै एक पग नहीं है।' भी कहीं नहीं जा सकती।' सरस्वतीका अभिप्राय इसपर वह सरस्वती नदीरूपमें परिणत हो गयी। जानकर देवताओंने ब्रह्माजीसे कहा-'पितामह ! देवताओंके देखते-देखते एक पाकरके वृक्षकी जड़से आपकी कुमारी कन्या सरस्वती बड़ी साध्वी है-उसमें प्रकट हुई। वह वृक्ष भगवान् विष्णुका स्वरूप है। किसी प्रकारका दोष नहीं देखा गया है; अतः उसे सम्पूर्ण देवताओंने उसकी वन्दना की है। उसकी अनेकों छोड़कर दूसरा कोई नहीं है, जो बडवानलको ले शाखाएँ सब ओर फैली हुई है। वह दूसरे ब्रह्माजीकी जा सके। भाँति शोभा पाता है। यद्यपि उस वृक्षमें एक भी फूल पुलस्त्यजी कहते हैं-देवताओंकी बात सुनकर नहीं है, तो भी वह डालियोंपराबैठे हुए शुक आदि ब्रह्माजीने सरस्वतीको बुलाया और उसे गोदमें लेकर पक्षियोंके कारण फूलोंसे लदा-सा जान पड़ता है। उसका मस्तक सँघा। फिर बड़े नेहके साथ कहा- सरस्वतीने उस पाकरके समीप स्थित होकर देवाधिदेव 'बेटी ! तुम मेरी और इन समस्त देवताओंकी रक्षा करो। विष्णुसे कहा-'भगवन् ! मुझे बडवाग्नि समर्पित देवताओंके प्रभावसे तुम्हें इस कार्यके करनेपर बड़ा कीजिये; मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगी। उसके सम्मान प्राप्त होगा। इस बडवानलको ले जाकर खारे ऐसा कहनेपर भगवान् श्रीविष्णु बोले-'शुभे! तुम्हें पानीके समुद्रमें डाल दो।' पिताके वियोगके कारण इस बड़वानलको पशिम-समुद्रकी ओर ले जाते समय बालिकाके नेत्रोंमें आँसू छलछला आये। उसने जलनेका कोई भय नहीं होगा।' ' ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा-'अच्छ, जाती हूँ।' पुलस्त्यजी कहते हैं-तदनन्तर भगवान् उस समय सम्पूर्ण देवताओं तथा उसके पिताने भी श्रीविष्णुने बडवानलको सोनेके घड़ेमें रखकर सरस्वतीको कहा- 'भय न करो।' इससे वह भय छोड़कर प्रसन्न सौंप दिया। उसने उस घड़ेको अपने उदरमें रखकर चित्तसे जानेको तैयार हुई। उसकी यात्राके समय शङ्ख पश्चिमकी ओर प्रस्थान किया। अदृश्य गतिसे चलती हुई
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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