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________________ उत्तरखण्ड ] . श्रीमद्धगवद्रीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य . ८१९ . . . . . . . कल्याण हो; मेरा अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो गया !' आज्ञा देते हैं कि 'आप नरकमें पड़े हुए समस्त इस प्रकार पुत्रको आश्वासन देकर उसके पिता भगवान् प्राणियोंको छोड़ दें।' विष्णुके परमधामको चले गये। तत्पश्चात् वह भी अमिततेजस्वी भगवान् विष्णुका यह आदेश सुनकर लौटकर जनस्थानमें आया और परम सुन्दर भगवान् यमने मस्तक झुकाकर उसे स्वीकार किया और मन-हीश्रीकृष्णके मन्दिरमें उनके समक्ष बैठकर पिताके मन कुछ सोचा। तत्पश्चात् मदोन्मत्त नारकी जीवोंको आदेशानुसार गीताके तीसरे अध्यायका पाठ करने नरकसे मुक्त देखकर उनके साथ ही वे भगवान् विष्णुके लगा। उसने नारकी जीवोंका उद्धार करनेकी इच्छासे वास-स्थानको चले। यमराज श्रेष्ठ विमानके द्वारा जहाँ गीतापाठजनित सारा पुण्य सङ्कल्प करके दे दिया। क्षीरसागर है, वहाँ जा पहुँचे। उसके भीतर कोटि-कोटि इसी बीचमें भगवान् विष्णुके दूत यातना भोगने- सूर्योके समान कात्तिमान् नील कमल-दलके समान वाले नारकी जीवोंको छुड़ानेके लिये यमराजके पास श्यामसुन्दर लोकनाथ जगद्गुरु श्रीहरिका उन्होंने दर्शन गये। यमराजने नाना प्रकारके सत्कारोंसे उनका पूजन किया। भगवान्का तेज उनकी शय्या बने हुए शेषनागके किया और कुशल पूछी। वे बोले-'धर्मराज ! फनोंको मणियोंके प्रकाशसे दुगुना हो रहा था। वे हमलोगोंके लिये सब ओर आनन्द-ही-आनन्द है। इस आनन्दयुक्त दिखायी दे रहे थे। उनका हृदय प्रसन्नतासे प्रकार सत्कार करके पितृलोकके सम्राट् परम बुद्धिमान् परिपूर्ण था। भगवती लक्ष्मी अपनी सरल चितवनसे यमने विष्णुदूतोंसे यमलोकमें आनेका कारण पूछा। प्रेमपूर्वक उन्हें बारम्बार निहार रही थीं। चारों ओर तब विष्णुदूतोंने कहा-यमराज ! शेषशय्यापर योगीजन भगवानकी सेवामें खड़े थे। उन योगियोंकी शयन करनेवाले भगवान् विष्णुने हमलोगोंको आपके आँखोंके तारे ध्यानस्थ होनेके कारण निश्चल प्रतीत होते पास कुछ सन्देश देनेके लिये भेजा है। भगवान् थे। देवराज इन्द्र अपने विरोधियोको परास्त करनेके हमलोगोंके मुखसे आपकी कुशल पूछते हैं और यह उद्देश्यसे भगवानकी स्तुति कर रहे थे। ब्रह्माजीके मुखसे निकले हुए वेदान्त-वाक्य मूर्तिमान् होकर भगवान्के गुणोंका गान कर रहे थे। भगवान् पूर्णतः सन्तुष्ट होनेके साथ ही समस्त योनियोंकी ओरसे उदासीन प्रतीत होते थे। जीवोंमेंसे जिन्होंने योग-साधनके द्वारा अधिक पुण्य सञ्चय किया था, उन सबको एक ही साथ वे कृपादृष्टि से निहार रहे थे। भगवान् अपने स्वरूपभूत अखिल चराचर जगत्को आनन्दपूर्ण दृष्टि से आमोदित कर रहे थे। शेषनागकी प्रभासे उदासित एवं सर्वत्र व्यापक दिव्य विग्रह धारण किये नील कमलके सदृश श्यामवर्णवाले श्रीहरि ऐसे जान पड़ते थे, मानो चाँदनीसे घिरा हुआ आकाश सुशोभित हो रहा हो। इस प्रकार भगवान्की झांकी करके यमराज अपनी विशाल बुद्धिके द्वारा उनकी स्तुति करने लगे। यमराज बोले-सम्पूर्ण जगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वर ! आपका अन्तःकरण अत्यन्त निर्मल है। आपके मुखसे ही वेदोका प्रादुर्भाव हुआ है। आप संप पु० २७ APILc
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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