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________________ ८२० • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण ही विश्वस्वरूप और इसके विधायक ब्रह्मा हैं। आपको असीम हैं। फिर आप वाणीके विषय कैसे हो सकते हैं। नमस्कार है। अपने बल और वेगके कारण जो अत्यन्त अतः मेरा मौन रहना ही उचित है। दुर्धर्ष प्रतीत होते हैं, ऐसे दानवेन्द्रोंका अभिमान चूर्ण - इस प्रकार स्तुति करके यमराजने हाथ जोड़कर करनेवाले भगवान् विष्णुको नमस्कार है। पालनके समय कहा-'जगद्गुरो ! आपके आदेशसे इन जीवोंको सत्त्वमय शरीर धारण करनेवाले, विश्वके आधारभूत, गुणरहित होनेपर भी मैने छोड़ दिया है। अव मेरे योग्य सर्वव्यापी श्रीहरिको नमस्कार है। समस्त देहधारियोंकी और जो कार्य हो, उसे बताइये।' उनके यों कहनेपर पातक-राशिको दूर करनेवाले परमात्माको प्रणाम है। भगवान् मधुसूदन मेघके समान गम्भीर वाणीद्वारा जिनके ललाटवर्ती नेत्रके तनिक-सा खुलनेपर भी मानो अमृत-रससे सींचते हुए बोले-'धर्मराज ! तुम आगकी लपटें निकलने लगती हैं, उन रुद्ररूपधारी आप सबके प्रति समान भाव रखते हुए लोकोंका पापसे परमेश्वरको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण विश्वके गुरु, उद्धार कर रहे हो। तुमपर देहधारियोंका भार रखकर मैं आत्मा और महेश्वर हैं; अतः समस्त वैष्णवजनोंको निश्चिन्त हूँ। अतः तुम अपना काम करो और अपने सङ्कटसे मुक्त करके उनपर अनुग्रह करते हैं। आप लोकको लौट जाओ।' मायासे विस्तारको प्राप्त हुए अखिल विश्वमें व्याप्त होकर यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये। यमराज भी कभी माया अथवा उससे उत्पन्न होनेवाले गुणोंसे भी अपनी पुरीको लौट आये। तथा वह ब्राह्मण अपनी मोहित नहीं होते। माया तथा मायाजनित गुणोंके बीचमें जातिके और समस्त नारकी जीवोका नरकसे उद्धार स्थित होनेपर भी आपपर उनमेंसे किसीका प्रभाव नहीं करके स्वयं भी श्रेष्ठ विमानद्वारा श्रीविष्णुधामको पड़ता। आपकी महिमाका अन्त नहीं है; क्योंकि आप चला गया। या श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य _ श्रीभगवान् कहते है-प्रिये ! अब मैं चौथे दिनोंके भीतर सूख गये। उनमें पत्ते और डालियाँ भी अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, सुनो। भागीरथीके नहीं रह गयीं। तत्पश्चात् वे दोनों वृक्ष कहीं ब्राह्मणोंके तटपर वाराणसी (बनारस) नामकी एक पुरी है। वहाँ पवित्र गृहमें दो कन्याओंके रूपमें उत्पन्न हुए। विश्वनाथजीके मन्दिरमें भरत नामके एक योगनिष्ठ वे दोनों कन्याएँ जब बढ़कर सात वर्षकी हो गयीं, महात्मा रहते थे, जो प्रतिदिन आत्मचिन्तनमें तत्पर हो तब एक दिन उन्होंने दूर देशोंसे घूमकर आते हुए आदरपूर्वक गीताके चतुर्थ अध्यायका पाठ किया करते भरतमुनिको देखा । उन्हें देखते ही वे दोनों उनके चरणोंमें थे। उसके अभ्याससे उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया पड़ गयीं और मीठी वाणीमें बोलीं-'मुने ! आपकी ही था। वे शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे कभी व्यथित नहीं होते कृपासे हम दोनोंका उद्धार हुआ है। हमने बेरकी योनि थे। एक समयकी बात है, वे तपोधन नगरको सीमामें त्यागकर मानव-शरीर प्राप्त किया है। उनके इस प्रकार स्थित देवताओंका दर्शन करनेकी इच्छासे भ्रमण करते कहनेपर मुनिको बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने पूछाहुए नगरसे बाहर निकल गये। वहाँ बेरके दो वृक्ष थे। 'पुत्रियो ! मैने कब और किस साधनसे तुम्हें मुक्त किया उन्हींकी जड़में वे विश्राम करने लगे। एक वृक्षकी जड़में था? साथ ही यह भी बताओ कि तुम्हारे बेरके वृक्ष उन्होंने अपना मस्तक रखा था और दूसरे वृक्षके मूलमें होनेमें क्या कारण था? क्योंकि इस विषयमें मुझे कुछ उनका एक पैर टिका हुआ था। थोड़ी देर बाद जब वे भी ज्ञात नहीं है।' तपस्वी चले गये, तब बेरके वे दोनों वृक्ष पाँच-ही-छ: तब वे कन्याएँ पहले उन्हें अपने बेर हो जानेका
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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