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________________ सृष्टिखण्ड ] ******* • तुलाधारके सत्य, समताकी प्रशंसा; मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन • ************* डालनेवाला मालिन्य पैदा होगा। उस मलिनता रूप साँकलमें बँध जानेपर मनुष्य फिर ऊपर नहीं उठ सकता।' यह विचारकर वह शूद्र उस फलको वहीं छोड़ घर चला गया। उस समय स्वर्गस्थ देवता प्रसन्नताके साथ 'साधु-साधु' कहकर उसकी प्रशंसा करने लगे। तब मैं एक क्षपणकका रूप धारण करके उसके घरके पास गया और लोगोंको उनके भाग्यकी बातें बताने लगा। विशेषतः भूतकालकी बात बताया करता था। फिर लोगोंके बारम्बार आने-जानेसे यह समाचार सब ओर फैल गया। यह सुनकर उस शूद्रकी स्त्री भी मेरे पास आयी और अपने भाग्यका कारण पूछने लगी। तब मैंने तुरंत ही उसके मनकी बात बता दी और एकान्तमें स्थित होकर कहा - 'महाभागे ! विधाताने आज तेरे लिये बहुत धन दिया था, किन्तु तेरे पतिने मूर्खकी भाँति उसका परित्याग कर दिया है। तेरे घरमें धनका बिलकुल अभाव है। अतः जबतक तेरा पति जीवित रहेगा, तबतक उसे दरिद्रता ही भोगनी पड़ेगी- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता ! तू शीघ्र ही अपने घर जा और पतिसे उस धनके विषयमें पूछ।' इस मङ्गलमय वचनको सुनकर वह अपने पतिके पास गयी और उस दुःखद वृत्तान्तकी चर्चा करने लगी। उसकी बातको सुनकर शूद्रको बड़ा विस्मय हुआ। वह कुछ सोचकर पत्नीको साथ लिये मेरे पास आया और एकान्तमें मुझसे बोला- ' क्षपणक ! बताओ, तुम क्या कहते थे ?' क्षपणक बोला - तात! तुम्हें प्रत्यक्ष धन प्राप्त हुआ था; फिर भी तुमने अवज्ञापूर्वक तिनकेकी भाँति उसका त्याग कर दिया। ऐसा क्यों किया ? जान पड़ता है तुम्हारे भाग्यमें भोग नहीं बदा है। धनके अभाव में तुम्हें जन्मसे लेकर मृत्युतक अपने और बन्धु बान्धवोंके दुःख देखने पड़ेंगे; प्रतिदिन मृतकोंकी-सी अवस्था भोगनी पड़ेगी। इसलिये शीघ्र ही उस धनको ग्रहण करो और निष्कण्टक भोग भोगो। शूद्रने कहा- - क्षपणक ! मुझे धनकी इच्छा नहीं । धन संसार-बन्धनमें डालनेवाला एक जाल है। १९१ उसमें फँसे हुए मनुष्यका फिर उद्धार नहीं होता। इस लोक और परलोकमें भी धनके जो दोष हैं, उन्हें सुनो। धन रहनेपर चोर, बन्धु बान्धव तथा राजासे भी भय प्राप्त होता है। सब मनुष्य [उस धनको हड़प लेनेके लिये ] धनी व्यक्तिको मार डालनेकी अभिलाषा रखते हैं; फिर धन कैसे सुखद हो सकता है ? धन प्राणोंका घातक और पापका साधक है। धनीका घर काल एवं काम आदि दोषोंका निकेतन बन जाता है। अतः धन दुर्गतिका प्रधान कारण है। क्षपणक बोला- जिसके पास धन होता है, उसीको मित्र मिलते हैं। जिसके पास धन है, उसके सभी भाई-बन्धु हैं। कुल, शील, पाण्डित्य, रूप, भोग, यश और सुख - ये सब धनवान्‌को ही प्राप्त होते हैं। धनहीन मनुष्यको तो उसके स्त्री-पुत्र भी त्याग देते हैं; फिर उसे मित्रोंकी प्राप्ति कैसे हो सकती है। जो जन्मसे दरिद्र हैं, वे धर्मका अनुष्ठान कैसे कर सकते हैं। स्वर्गप्राप्तिमें उपकारक जो सात्त्विक यज्ञकार्य तथा पोखरे खुदवाना आदि कर्म हैं, वे भी धनके अभावमें नहीं हो सकते। दान संसारके लिये स्वर्गकी सीढ़ी है; किन्तु निर्धन व्यक्तिके द्वारा उसकी भी सिद्धि होनी असम्भव है। व्रत आदिका पालन, धर्मोपदेश आदिका श्रवण, पितृ-यज्ञ आदिका अनुष्ठान तथा तीर्थ सेवन-ये शुभकर्म धनहीन मनुष्यके किये नहीं हो सकते। रोगोंका निवारण, पथ्यका सेवन, औषधोंका संग्रह, अपने शरीरकी रक्षा तथा शत्रुओं पर विजय आदि कार्य भी धनसे ही सिद्ध होते हैं, इसलिये जिसके पास बहुत धन हो, उसीको इच्छानुसार भोग प्राप्त हो सकते हैं। धन रहनेपर तुम दानसे ही शीघ्र स्वर्गकी प्राप्ति कर सकते हो। शूने कहा- कामनाओंका त्याग करनेसे ही समस्त व्रतोंका पालन हो जाता है। क्रोध छोड़ देनेसे तीथका सेवन हो जाता है। दया ही जपके समान है। सन्तोष ही शुद्ध धन है, अहिंसा ही सबसे बड़ी सिद्धि है, शिलोञ्छवृत्ति ही उत्तम जीविका है। सागका भोजन ही अमृतके समान है। उपवास ही उत्तम तपस्या है। सन्तोष ही मेरे लिये बहुत बड़ा भोग है। कौड़ीका दान
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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