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________________ १९२ . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण ही मुझ-जैसे व्यक्तिके लिये महादान है। परायी स्त्रियाँ साक्षात् धर्म ही तो यहाँ नहीं आये हैं?' शूद्रके ऐसे माता और पराया धन मिट्टीके ढेलेके समान है। परस्त्री वचन सुनकर क्षपणकके रूपमें उपस्थित हुआ मैं हैंसकर सर्पिणीके समान भयङ्कर है। यही सब मेरा यज्ञ है। बोला-'महामुने ! मैं साक्षात् विष्णु हूँ, तुम्हारे धर्मको गुणनिधे ! इसी कारण मैं उस धनको नहीं ग्रहण करता। जाननेके लिये यहाँ आया था। अब तुम अपने परिवारयह मैं सच-सच बता रहा हूँ। कीचड़ लगाकर धोनेकी सहित विमानपर बैठकर स्वर्गको जाओ।' अपेक्षा दूरसे उसका स्पर्श न करना ही अच्छा है। तदनन्तर वह शूद्र दिव्य आभूषण और दिव्य ___ श्रीभगवान् कहते हैं-नरश्रेष्ठ ! उस शूद्रके वस्त्रोंसे सुशोभित हो सहसा परिवारसहित स्वर्गलोकको इतना कहते ही सम्पूर्ण देवता उसके शरीर और चला गया। इस प्रकार उस शूद्रपरिवारके सब लोग मस्तकपर फूलोंकी वर्षा करने लगे। देवताओंके नगारे लोभ त्याग देनेके कारण स्वर्ग सिधारे। बुद्धिमान् बज उठे। गन्धर्वोका गान होने लगा। तुरंत ही तुलाधार धर्मात्मा हैं। वे सत्यधर्ममें प्रतिष्ठित हैं। इसीलिये देशान्तरमें होनेवाली बातें भी उन्हें ज्ञात हो जाती हैं। तुलाधारके समान प्रतिष्ठित व्यक्ति देवलोकमें भी नहीं है। जो मनुष्य सब धर्मोंमें प्रतिष्ठित होकर इस पवित्र उपाख्यानका श्रवण करता है, उसके जन्म-जन्मके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। एक बारके पाठसे उसे सब यज्ञोंका फल मिल जाता है। वह लोकमें श्रेष्ठ और देवताओंका भी पूज्य होता है। व्यासजी कहते हैं-तदनन्तर, मूक चाण्डाल आदि सभी धर्मात्मा परमधाम जानेकी इच्छासे भगवानके पास आये। उनके साथ उनकी स्त्रियाँ तथा अन्यान्य परिकर भी थे। इतना ही नहीं, उनके घरके आस-पास जो छिपकलियाँ तथा नाना प्रकारके कीड़े-मकोड़े आदि थे, वे देवस्वरूप होकर उनके पीछे-पीछे जानेको उपस्थित थे। उस समय देवता, सिद्ध और महर्षिगण 'धन्य-धन्य' के नारे लगाते हुए फूलोंकी वर्षा करने लगे। विमानों और वनोंमें देवताओंके नगारे बजने लगे। आकाशसे विमान उतर आया। देवताओंने कहा- वे सब महात्मा अपने-अपने विमानपर आरूढ़ हो 'धर्मात्मन् ! इस विमानपर बैठो और सत्यलोकमें विष्णुधामको पधारे। ब्राह्मण नरोत्तमने यह अद्भुत दृश्य चलकर दिव्य भोगोंका उपभोग करो। तुम्हारे उपभोग- देखकर श्रीजनार्दनसे कहा-'देवेश ! मधुसूदन !! मुझे कालका कोई परिमाण नहीं है-अनन्त कालतक तुम्हें कोई उपदेश दीजिये।' पुण्योंका फल भोगना है।' देवगणोंके यों कहनेपर शूद्र श्रीभगवान् बोले-तात ! तुम्हारे माताबोला-'इस क्षपणकको ऐसा ज्ञान, ऐसी चेष्टा और इस पिताका चित्त शोकसे व्याकुल हो रहा है। उनके पास प्रकार भाषणकी शक्ति कैसे प्राप्त हुई है? इसके रूपमें जाओ। उनकी यत्नपूर्वक आराधना करके तुम शीघ्र ही भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा, शुक्र अथवा बृहस्पति- मेरे धाममें जाओगे। माता-पिताके समान देवता इनमेंसे तो कोई नहीं है? अथवा मुझे छलनेके लिये देवलोकमें भी नहीं हैं। उन्होंने शैशवकालमें तुम्हारे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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