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________________ ३१८ 6 अर्थयस्व वीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • जो मनुष्योंसे कटु वचन बोलना नहीं जानते, जो प्रिय वचन बोलनेके लिये प्रसिद्ध हैं; जिन्होंने बावली, कुआं, सरोवर, पाँसला, धर्मशाला और बगीचे बनवाये हैं; जो मिथ्यावादियोंके लिये भी सत्यपूर्ण बर्ताव करनेवाले और कुटिल मनुष्योंके लिये भी सरल हैं, वे दयालु तथा सदाचारी मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो एकमात्र धर्मका अनुष्ठान करके अपने प्रत्येक दिवसको सदा सफल बनाते हैं तथा नित्य ही व्रतका पालन करते हैं; जो शत्रु और मित्रको समान भावसे सराहना करते और सबको समान दृष्टिसे देखते हैं; जिनका चित्त शान्त है, जो अपने मनको वशमें कर चुके हैं, जिन्होंने भयसे डरे हुए ब्राह्मणों तथा स्त्रियोंकी रक्षाका नियम ले रखा है; जो गङ्गा, पुष्कर तीर्थ और विशेषतः गया में पितरोंको पिण्ड दान करते हैं, वे स्वर्गगामी होते हैं। जो इन्द्रियोंके वशमें नहीं रहते, जिनकी संयममें प्रवृत्ति है; जिन्होंने लोभ, भय और क्रोधका परित्याग कर दिया है; जो शरीरमें पीड़ा देनेवाले जूँ, खटमल और डाँस आदि जन्तुओंका भी पुत्रकी भाँति पालन करते हैं— उन्हें मारते नहीं; सर्वदा मन और इन्द्रियोंके निग्रहमें लगे रहते हैं और परोपकारमें ही जीवन व्यतीत करते हैं, वे मनुष्य स्वर्गलोकके अतिथि होते हैं। जो विशेष विधिके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान करते, सब प्रकारके कुञ्जलका अपने पुत्र M तदनन्तर वक्ताओंमें श्रेष्ठ कुञ्जलने विज्वलको परम पवित्र श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्रका उपदेश किया कुञ्जल कहता है-धर्म-अधर्मकी सम्पूर्ण गतिके विषयमें महर्षि जैमिनिका भाषण सुनकर राजा सुबाहुने कहा- 'द्विजश्रेष्ठ ! मैं भी धर्मका ही अनुष्ठान करूँगा, पापका नहीं । जगत्की उत्पत्तिके स्थानभूत भगवान् वासुदेवका निरन्तर भजन करूंगा।' इस निश्चयके अनुसार राजा सुबाहुने धर्मके द्वारा भगवान् मधुसूदनका पूजन किया तथा नाना प्रकारके यज्ञोंद्वारा भगवान्‌की आराधना करके तथा सम्पूर्ण भोगोंको भोगकर वे शीघ्र ही प्रसन्नतापूर्वक विष्णुलोकको पधार गये। ★विज्वलको श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्र सुनाना इस श्रीवासुदेवाभिधान स्तोत्रके अनुष्टुप् छन्द नारद ऋषि और ओंकार देवता हैं; सम्पूर्ण पातकोंके नाश [ संक्षिप्त पद्मपुराण द्वन्द्वोंको सहते तथा इन्द्रियोंको वशमें रखते हैं; जो पवित्र और सत्त्वगुणमें स्थित रहकर मन, वाणी तथा क्रियाद्वारा भी कभी परायी स्त्रियोंके साथ रमण नहीं करते; निन्दित कमसे दूर रहते, विहित कर्मोंका अनुष्ठान करते तथा आत्माकी शक्तिको जानते हैं, वे मनुष्य स्वर्गगामी होते हैं। जो दूसरोंके प्रतिकूल आचरण करता है, उसे अत्यन्त दुःखदायी घोर नरकमें गिरना पड़ता है तथा जो सदा दूसरोंके अनुकूल चलता है, उस मनुष्यके लिये सुखदायिनी मुक्ति दूर नहीं है। राजन्! कमद्वारा जिस प्रकार दुर्गति और सुगति प्राप्त होती है, वह सब मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे बतला दिया। तथा चतुर्वर्गकी सिद्धिके लिये इसका विनियोग है। * ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' – यही इस स्तोत्रका मूलमन्त्र है। + जो परम पावन पुण्यस्वरूप, वेदके ज्ञाता, * ॐ अस्य श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्रस्यानुष्टुप् छन्दः, नारद ऋषिः, ओंकारी देवता, सर्वपातकनाशाय चतुर्वर्गसाधने च विनियोगः ॥ + ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' इति मन्त्रः । (९८।३८) + परमं पावनं पुण्यं वेदशे वेदमन्दिरम् विद्याधारं मखाधारं प्रणव तं नमाम्यहम् ॥ निरावास निराकार सुप्रकाश महोदयम्। निर्गुण गुणकर्तारं नमामि प्रणवं परम् ॥ गायत्रीसाम गाया गीतज्ञ गीतसुप्रियम् । गन्धर्वगीतभोक्तारं प्रणवं तं नमाम्यहम् ॥
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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