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________________ भूमिखण्ड ] • ययातिका प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन • हुआ। राजा कामाग्निसे जलने और कामज्वरसे पीड़ित होने लगे। उन्होंने उस सुन्दरीसे पूछा - शुभे ! तुम कौन हो ? किसकी कन्या हो ? तुम्हारे पास यह कौन बैठी है ? कल्याणी ! मुझे सब बातोंका परिचय दो। मैं नहुषका पुत्र हूँ। मेरा जन्म चन्द्रवंशमें हुआ है। पृथ्वीके सातों द्वीपोंपर मेरा अधिकार है। मैं तीनों लोकोंमें विख्यात हूँ। मेरा नाम ययाति है। सुन्दरी ! मुझे दुर्जय काम मारे डालता है। मैं उत्तम शीलसे युक्त हूँ। मेरी रक्षा करो। तुम्हारे समागमके लिये मैं अपना राज्य, समूची पृथ्वी और यह शरीर भी अर्पण कर दूँगा। यह त्रिलोकी तुम्हारी ही है। 177 पहले जिन-जिन गुणोंकी चर्चा की है, वे सभी आपके भीतर विद्यमान हैं; केवल एक ही दोषके कारण यह मेरी सखी आपको पसंद नहीं करती। आपके शरीरमें वृद्धावस्थाका प्रवेश हो गया है। यदि आप उससे मुक्त हो सकें, तो यह आपकी प्रियतमा हो सकती है। राजन् ! यही इसका निश्चय है। मैंने सुना है, पुत्र, भ्राता और भृत्य — जिसके शरीरमें भी इस जरावस्थाको डाला जाय, उसीमें इसका संचार हो जाता है। अतः भूपाल ! आप अपना बुढ़ापा तो पुत्रको दे दीजिये और स्वयं उसका यौवन लेकर परम सुन्दर बन जाइये मेरी सखी जिस रूपमें आपका उपभोग करना चाहती है, उसीके अनुकूल व्यवस्था कीजिये । ययाति बोले- महाभागे ! एवमस्तु, मैं तुम्हारी आज्ञाका पालन करूँगा । राजा ययाति काम भोगमें आसक्त होकर अपनी विवेकशक्ति खो बैठे थे। वे घर जाकर अपने पुत्रोंसे बोले- 'तुमलोगोमेंसे कोई एक मेरी दुःखदायिनी जरावस्थाको ग्रहण कर ले और अपनी जवानी मुझे दे दे, जिससे मैं इच्छानुसार भोग भोग सकूँ। जो मेरी वृद्धावस्थाको ग्रहण करेगा, वह पुत्रोंमें श्रेष्ठ समझा जायगा और वही मेरे राज्यका स्वामी होगा। उसको सुख, सम्पत्ति, धन-धान्य, बहुत-सी सन्तानें तथा यश और कीर्ति प्राप्त होगी।' तुरुने कहा - पिताजी! इसमें सन्देह नहीं कि पिता-माताकी कृपासे ही पुत्रको शरीरकी प्राप्ति होती है; अतः उसका कर्तव्य है कि वह विशेष चेष्टाके साथ माता-पिताकी सेवा करे। परन्तु महाराज यौवन-दान करनेका यह मेरा समय नहीं है। 5 तुरुकी बात सुनकर धर्मात्मा राजाको बड़ा क्रोध हुआ। वे उसे शाप देते हुए बोले- 'तूने मेरी आशाका अनादर किया है, अतः तू सब धर्मोसे बहिष्कृत और ययाति बोले- मुझे इन सभी गुणोंसे युक्त पापी हो जा तेरा हृदय पवित्र ज्ञानसे शून्य हो जाय और तू कोढ़ी हो जा।' तुरुको इस प्रकार शाप देकर वे अपने दूसरे पुत्र यदुसे बोले – 'बेटा! तू मेरी जरावस्थाको ग्रहण कर और मेरा अकण्टक राज्य भोग।' यह सुनकर 1 समझो । मैं इसके योग्य पति हो सकता हूँ। - विशालाने कहा- राजन्! मैं जानती हूँ, आप अपने पुण्यके लिये तीनों लोकोंमें विख्यात हैं। मैंने राजाकी बात सुनकर सुन्दरीने अपनी सखी विशालाको उत्तर देनेके लिये प्रेरित किया। तब विशालाने कहा-' -'नरश्रेष्ठ! यह रतिकी पुत्री है। इसका नाम अश्रुबिन्दुमती है। मैं इसके प्रेम और सौहार्दवश सदा इसके साथ रहती हूँ। हम दोनोंमें स्वाभाविक मित्रता है, जिससे मैं सर्वदा प्रसन्न रहती हूँ। मेरा नाम विशाला है। मैं वरुणकी पुत्री हूँ महाराज! मेरी यह सुन्दरी सखी योग्य वरकी प्राप्तिके लिये तपस्या कर रही है। इस प्रकार मैंने आपसे अपनी इस सखीका तथा अपना भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया।' The Fat यह ययाति बोले- शुभे ! मेरी बात सुनो सुन्दर मुखवाली रतिकुमारी मुझे ही पतिरूपमें स्वीकार करे। यह बाला जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करेगी, वह सब मैं इसे प्रदान करूंगा। ३०३ PAW विशालाने कहा- राजन्! मैं इसका नियम बतलाती हूँ, पहले उसे सुन लीजिये। यह स्थिर यौवनसे युक्तः सर्वज्ञ, वीरके लक्षणोंसे सुशोभित, देवराजके समान तेजस्वी, धर्मका आचरण करनेवाले, त्रिलोकपूजित, सुबुद्धि, सुप्रिय तथा उत्तम गुणोंसे युक्त पुरुषको अपना पति बनाना चाहती है 1 1757,44
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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