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________________ ३०२ • अर्वयस्व हषीकेश यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण अवस्थाके दिखायी देते थे। सबका आचार-विचार एक उत्तम नाटक खेलना चाहते है। राजा ययाति सत्यसे युक्त था। सभी भगवान्के ध्यानमें तन्मय रहते ज्ञान-विज्ञानमें कुशल थे। उन्होंने नटोंको बात सुनकर थे। समूची पृथ्वीपर जगत्में किसीकी मृत्यु नहीं सुनी सभा एकत्रित को और स्वयं भी उसमें उपस्थित हुए। जाती थी। किसीको शोक नहीं देखना पड़ता था। कोई नटोंने विप्ररूपधारी भगवान् वामनके अवतारकी लीला भी दोषसे लिप्त नहीं होते थे। उपस्थित की। राजा उनका नाटक देखने लगे। उस ___एक समय इन्द्रने कामदेव और गन्धर्वोको बुलाया नाटकमें साक्षात् कामदेवने सूत्रधारका काम किया। तथा उनसे इस प्रकार कहा–'तुम सब लोग मिलकर वसन्त पारिपार्थक बना। अपने वल्लभको प्रसत्र ऐसा कोई उपाय करो, जिससे राजा ययाति यहाँ आ करनेवाली रति-नटीके वेषमें उपस्थित हुई । नाटकमें सब जायें।' इन्द्रके यों कहनेपर कामदेव आदि सब लोग लोग पात्रके अनुरूप वेष धारण किये अभिनय करने नटके वेपमें राजा ययातिके पास आये और उन्हें लगे। मकरन्द (वसन्त) ने महाप्राज्ञ राजा ययातिके आशीर्वादसे प्रसन्न करके बोले-महाराज! हमलोग चित्तको क्षोभमें डाल दिया। ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम-गमन सुकर्मा कहते हैं-पिप्पल ! महाराज ययाति जो सभी गुणोंसे युक्त था। उसके भीतर राजाने एक कामदेवके गीत, नृत्य और ललित हास्यसे मोहित होकर बहुत सुन्दर तालाब देखा, जो दस योजन लंबा और स्वयं भी नट-स्वरूप हो गये। वे मल-मूत्रका त्याग पाँच योजन चौड़ा था। सब ओर कल्याणमय जलसे करके आये और पैरोंको धोये बिना ही आसनपर बैठ भरा वह सर्वतोभद्र नामक तालाब दिव्य भावोंसे शोभा गये। यह छिद्र पाकर वृद्धावस्था तथा कामदेवने राजाके पा रहा था। राजा रथके वेगपूर्वक चलनेसे खिन्न हो गये शरीरमें प्रवेश किया। नृपश्रेष्ठ ! उन सबने मिलकर थे। परिश्रमके कारण उन्हें कुछ पीड़ा हो रही थी; अतः इन्द्रका कार्य पूरा कर दिया। नाटक समाप्त हो गया। सब सरोवरके तटपर ठंडी छायाका आश्रय लेकर बैठ गये। लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा थोड़ी देर बाद स्रान करके उन्होंने कमलकी राजा ययाति जरावस्थासे पराजित हुए। उनका चित्त सुगन्धसे सुवासित सरोवरका शीतल जल पिया। इतनेमें काम-भोगमें आसक्त हो गया। ही उन्हें अत्यन्त मधुर स्वरमें गाया जानेवाला एक दिव्य एक दिन वे कामयुक्त होकर वनमें शिकार खेलनेके संगीत सुनायी पड़ा, जो ताल और मूर्च्छनासे युक्त था। लिये गये। उस समय उनके सामने एक हिरन निकला, राजा तुरंत उठकर उस स्थानकी ओर चल दिये, जहाँ जिसके चार सींग थे। उसके रूपकी कहीं तुलना नहीं गीतकी मनोहर ध्वनि हो रही थी। जलके निकट एक थी। उसके सभी अङ्ग सुन्दर थे। रोमावलियाँ सुनहरे विशाल एवं सुन्दर भवन था । उसीके ऊपर बैठकर रूप, रंगकी थी, मस्तकपर रन-सा जड़ा हुआ प्रतीत होता शील और गुणसे सुशोभित एक सुन्दरी नारी मनोहर गीत था। सारा शरीर चितकबरे रंगका था। वह मनोहर मृग गा रही थी। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी थीं। रूप और तेज देखने ही योग्य था । राजा धनुष-बाण लेकर बड़े वेगसे उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चराचर जगत्में उसके-जैसी उसके पीछे दौड़े। मृग भी उन्हें बहुत दूर ले गया और सुन्दरी स्त्री दूसरी कोई नहीं थी। महाराज ययातिके उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गया। राजाको शरीरमें जरायुक्त कामका सञ्चार पहले ही हो चुका था। वहाँ नन्दनवनके समान एक अद्भुत वन दिखायी दिया, उस स्त्रीको देखते ही वह काम विशाल रूपमें प्रकट
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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