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________________ सष्टिखण्ड ] • सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन, अन्नदानादि धर्मोकी प्रशंसा. ६९ जन्म देनेवाले है। आपकी कृपासे देवताओंसहित सम्पूर्ण दीजिये। आपने जो जल पी लिया है, वह सब इसमें जगत्का कभी उच्छेद नहीं हो सकता।' इस प्रकार सम्पूर्ण वापस छोड़ दीजिये। देवता उनका सम्मान कर रहे थे। प्रधान-प्रधान गन्धर्व उनके ऐसा कहनेपर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी बोलेहर्षनाद करते थे और महर्षिके ऊपर दिव्य पुष्पोंकी वर्षा 'वह जल तो मैंने पचा लिया, अब समुद्रको भरनेके हो रही थी। उन्होंने समूचे महासागरको जलशून्य कर लिये आपलोग कोई दूसरा उपाय सोचें।' महर्षिकी बात दिया। जब समुद्रमें एक बूंद भी पानी न रहा, तब सम्पूर्ण सुनकर देवताओंको विस्मय भी हुआ और विषाद भी। देवता हर्षमें भरकर हाथोंमें दिव्य आयुध लिये दानवोंपर वहाँ इकट्ठे हुए सब लोग एक दूसरेकी अनुमति ले प्रहार करने लगे। महाबली देवताओंका वेग असुरोंके मुनिवर अगस्त्यजीको प्रणाम करके जैसे आये थे, वैसे लिये असह्य हो गया। उनकी मार खाकर भी वे भीमकाय ही लौट गये। देवतालोग समुद्रको भरनेके विषयमें दानव दो घड़ीतक घमासान युद्ध करते रहे; किन्तु वे परस्पर विचार करते हुए ब्रह्माजीके पास गये। वहाँ पवित्रात्मा मुनियोंकी तपस्यासे दग्ध हो चुके थे, इसलिये पहुँचकर उन्होंने हाथ जोड़ ब्रह्माजीको प्रणाम किया और पूर्ण शक्ति लगाकर यत्र करते रहनेपर भी देवताओंके समुद्रके पुनः भरनेका उपाय पूछा। तब लोकपितामह हाथसे मारे गये। जो मरनेसे बच रहे, वे पृथ्वी फाड़कर ब्रह्माने उनसे कहा-'देवताओ! तुम सब लोग पातालमें घुस गये। दानवोंको मारा गया देख देवताओंने इच्छानुसार अपने-अपने अभीष्ट स्थानको लौट जाओ, नाना प्रकारके वचनोंद्वारा मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यका स्तवन अब बहुत दिनोंके बाद समुद्र अपनी पूर्वावस्थाको प्राप्त किया तथा इस प्रकार कहा होगा। महाराज भगीरथ अपने कुटुम्बी जनोंको तारनेके देवता बोले-महाभाग ! आपकी कृपासे लिये गङ्गाजीको लायेंगे और उन्हींके जलसे पुनः संसारके लोगोंको बड़ा सुख मिला। कालकेय दानव समुद्रको भर देंगे।' बड़े ही क्रूर और पराक्रमी थे, वे सब आपकी शक्तिसे ऐसा कहकर ब्रह्माजीने देवताओं और ऋषियोंको मारे गये। लोकरक्षक महर्षे ! अब इस समुद्रको भर भेज दिया। सप्तर्षि-आश्रमके प्रसङ्गमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा । पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! अब मैं तुम्हारे चेष्टाके साथ तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप उनमें लिये सप्तर्षियोंके आश्रमका वर्णन करूंगा। अत्रि, इन्द्रिय-जय, धैर्य, सत्य, क्षमा, सरलता, दया और दान वसिष्ठ, मैं, पुलह, क्रतु, अङ्गिरा, गौतम, सुमति, सुमुख, आदि सद्गुणोंकी प्रतिष्ठा हुई है। पूर्वकालकी बात है, विश्वामित्र, स्थूलशिरा, संवर्त, प्रतर्दन, रैभ्य, बृहस्पति, समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकपर विजय प्राप्त करनेकी च्यवन, कश्यप, भृगु, दुर्वासा, जमदनि, मार्कण्डेय, अभिलाषा रखनेवाले सप्तर्षिगण तीर्थस्थानोंका दर्शन गालव, उशना, भरद्वाज, यवक्रीत, स्थूलाक्ष, मकराक्ष, करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इसी बीचमें एक कण्व, मेधातिथि, नारद, पर्वत, खगन्धी, तृणाम्बु, बार बड़ा भारी सूखा पड़ा, जिसके कारण भूखसे पीड़ित शवल, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निकुमार होकर सम्पूर्ण जगत्के लोग बड़े कष्टमें पड़ गये। उसी परशुराम, अष्टक तथा कृष्णद्वैपायन-ये सभी ऋषि- समय उन ऋषियोंको भी कष्ट उठाते देख तत्कालीन महर्षि अपने पुत्रों और शिष्योंके साथ पुष्करमें आकर राजाने, जो प्रजाकी देख-भालके लिये भ्रमण कर रहे थे, सप्तर्षियोंके आश्रममें रह चुके हैं तथा सबने इन्द्रिय- दुःखी होकर कहा-'मुनिवरो ! ब्राह्मणोंके लिये प्रतिग्रह संयम और शौच-सन्तोषादि नियमोंके पालनपूर्वक पूरी उत्तम वृत्ति है; अतः आपलोग मुझसे दान ग्रहण
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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