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________________ २८४ . अर्चयस्व पीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . .. [संक्षिप्त पापुराण हैं। व्यास तथा मार्कण्डेय उनके स्वरूपको जानते हैं। चराचर प्राणी, इन्द्रादि लोकपाल तथा अग्नि आदि अब मैं भगवान्के अर्वाचीन रूपका वर्णन करूँगा, देवताओंका जन्म हुआ। इस प्रकार मैंने यह तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो । 'जिस समय सम्पूर्ण भूतोंके अर्वाचीनका स्वरूप बतलाया है। अर्वाचीन रूप आत्मा प्रजापति ब्रह्माजी स्वयं ही सबका संहार करके शरीरधारी है और पराचीन रूप शरीररहित है, अतः ब्रह्मा श्रीभगवान्के स्वरूपमें स्थित होते हैं और भगवान् आदि सम्पूर्ण देवता अर्वाचीन हैं। ये लोक भी, जो तीनो श्रीजनार्दन उन्हें अपनेमें लोन करके पानीके भीतर भुवनोंमें स्थित हैं, अर्वाचीन ही माने गये है। विद्याधर ! शेषनागकी शय्यापर दीर्घकालतक अकेले सोये रहते हैं, मोक्षरूप जो परम स्थान है; जिसे परब्रह्म कहते हैं, जो उस समयकी बात है। महामुनि मार्कण्डेयजी जल और अव्यक्त, अक्षर, हंसस्वरूप, शुद्ध और सिद्धियुक्त है, अन्धकारसे व्याकुल हो इधर-उधर भटक रहे थे। उन्होंने वही पराचीन है। इस प्रकार तुम्हारे सामने पराचीन देखा सर्वव्यापी ईश्वर शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं। स्वरूपका वर्णन किया गया। उनका तेज करोड़ों सूर्योके समान जान पड़ता है। वे विद्याधरने पूछा-सुव्रत ! आप अर्वाचीन और दिव्य आभूषण, दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण पराचीन स्वरूपके विद्वान् हैं। तीनों लोकोंका उत्तम ज्ञान किये योगनिद्रामें स्थित हैं। उनका श्रीविग्रह बड़ा ही आपमें वर्तमान है। फिर भी मैं आपमें तपस्याकी कमनीय है। उनके हाथोमे शङ्ख, चक्र और गदा पराकाष्ठा नहीं देखता । ऐसी दशामें आपके इस प्रभावका विराजमान है।* उनके पास ही उन्होंने एक विशालकाय क्या कारण है? कैसे आपको सब बातोका ज्ञान स्वी देखी, जो काली अञ्जन-राशिके समान थी। उसका प्राप्त हुआ? रूप बड़ा भयंकर था। उसने मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयसे सुकर्माने कहा-ब्रह्मन् ! मैंने यजन-याजन, कहा-'महामुने ! डरो मत। तब उन योगीश्वरने धर्मानुष्ठान ज्ञानोपार्जन और तीर्थ-सेवन-कुछ भी नहीं पूछा-'देवि! तुम कौन हो?' मुनिके इस प्रकार किया। इनके सिवा और भी किसी शुभकर्मजनित पूछनेपर देवीने बड़े आदरके साथ कहा-'ब्रह्मन् ! जो पुण्यका अर्जन मेरे द्वारा नहीं हुआ। मैं तो स्पष्टरूपसे शेषनागकी शय्यापर सो रहे हैं, वे भगवान् श्रीविष्णु हैं। एक ही बात जानता हूँ-वह है पिता और माताको मैं उन्हींको वैष्णवी शक्ति कालरात्रि हैं। सेवा-पूजा। पिप्पल ! मैं स्वयं ही अपने हाथसे पिप्पलजी! यो कहकर वह देवी अन्तर्धान हो माता-पिताके चरण धोनेका पुण्यकार्य करता हैं। उनके गयी। उसके चले जानेपर मार्कण्ड्यजीने देखा- शरीरकी सेवा करता तथा उन्हें स्नान और भोजन आदि भगवान्की नाभिसे एक कमल प्रकट हुआ, जिसकी कराता हूँ । प्रतिदिन तीनों समय माता-पिताकी सेवामें ही कान्ति सुवर्णके समान थी। उसीसे महातेजस्वी लगा रहता हूँ। जबतक मेरे माँ-बाप जीवित हैं, तबतक लोकपितामह ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। फिर ब्रह्माजीसे समस्त मुझे यह अतुलनीय लाभ मिल रहा है कि तीनों समय सर्व पश्यति वै कर्म कृतं त्रैलोक्यवासिनाम् । तेषामुक्तमकर्णश्च स शृणाति सुशान्तिदः ।। .... । पाणिहीनः पादहीनः कुरुतं च प्रधावति ।। (६२।२८-३२) * भ्रममाणः म ददश पर्यवशायिनम् । सूर्यकोटिपतीका दिव्याभरणभूषितम् ।। दिव्यमाल्याम्बरधर सर्वव्यापिनमीश्वरम् । योगनिद्रागर्त कानं शङ्खचक्रगदाधरम् ।। (६२ । ३९-४०) • मोक्षरूपं पर स्थान परब्रह्मस्वरूपकम् । अव्यक्तमक्षर हंस शुद्ध सिद्धिसमन्वितम्।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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