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________________ भूमिखण्ड ] . पितृतीर्थक प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन • २८३ ....................................................................................................... निकट बैठे थे। उनके भीतर बड़ी भक्ति थी। वे परम हैं कि सम्पूर्ण विश्व मेरे वशमें कैसे है। इन्हें विश्वास शान्त और सम्पूर्ण ज्ञानकी महान् निधि जान पड़ते थे। दिलानेके लिये ही मैंने आपलोगोंका आवाहन किया है। कुण्डल-कुमार सुकर्माने जब पिप्पलको अपने द्वारपर अब आप अपने-अपने स्थानको पधारें ।' आया देखा, तब वे आसन छोड़कर तुरंत खड़े हो गये तब देवताओंने कहा-'ब्रह्मन् ! हमारा दर्शन और आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। फिर उनको निष्फल नहीं होता । तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मनको आसन, पाद्य और अर्घ्य आदि निवेदन करके पूछा- जो रुचिकर प्रतीत हो, वही वरदान हमसे माँग लो।' तब 'महाप्राज्ञ ! आप कुशलसे तो हैं न? मार्गमें कोई कष्ट द्विजश्रेष्ठ सुकर्माने देवताओंको भक्तिपूर्वक प्रणाम करके तो नहीं हुआ? जिस कारणसे आपका यहाँ आना हुआ यह वरदान माँगा-'देवेश्वरो ! माता-पिताके चरणों में है, वह सब मैं बताता हूँ। महाभाग ! आपने तीन हजार मेरी उत्तम भक्ति सदा सुस्थिर रहे तथा मेरे माता-पिता वर्षातक तपस्या करके देवताओंसे वरदान प्राप्त भगवान् श्रीविष्णुके धाममें पधारें।' किया-सबको वशमें करनेकी शक्ति और इच्छानुसार देवता बोले-विप्रवर ! तुम माता-पिताके भक्त गति पायी है। इससे उन्मत्त हो जानेके कारण आपके तो हो ही, तुम्हारी उत्तम भक्ति और भी बढ़े। मनमें गर्व हो आया। तब महात्मा सारसने आपकी सारी यों कहकर सम्पूर्ण देवता स्वर्गलोगको चले गये। चेष्टा देखकर आपको मेरा नाम बताया और मेरे उत्तम पिप्पलने भी वह महान् और अद्भुत कौतुक प्रत्यक्ष ज्ञानका परिचय दिया। देखा। तत्पश्चात् उन्होंने कुण्डलपुत्र सुकर्मासे कहापिप्पलने पूछा-ब्रह्मन् ! नदीके तीरपर जो 'वक्ताओंमें श्रेष्ठ ! परमात्माका अर्वाचीन और पराचीन सारस मिला था, जिसने मुझे यह कहकर आपके पास रूप कैसा होता है, दोनोंका प्रभाव क्या है? यह भेजा कि वे सब ज्ञान बता सकते हैं, वह कौन था? बताइये।' सुकर्माने कहा-विप्रवर ! सरिताके तटपर सुकर्माने कहा-ब्रह्मन् ! मैं पहले आपको जिन्होंने सारसके रूपमें आपसे बात की थी, वे साक्षात् पराचीन रूपकी पहचान बताता हूँ, उसोसे इन्द्र आदि महात्मा ब्रह्माजी थे। देवता तथा चराचर जगत् मोहित होते हैं। ये जो जगत्के यह सुनकर धर्मात्मा पिप्पलने कहा-ब्रह्मन्! स्वामी परमात्मा हैं, वे सबमें मौजूद और सर्वव्यापक है। मैंने सुना है, सारा जगत् आपके अधीन है। इस बातको उनके रूपको किसी योगीने भी नहीं देखा है। श्रुति भी देखने के लिये मेरे मनमें उत्कण्ठा हो रही है। आप यत्न ऐसा कहती है कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। करके मुझे अपनी यह शक्ति दिखाइये। तब सुकर्मान उनके न हाथ है न पैर, न नाक है न कान और न मुख पिप्पलको विश्वास दिलानेके लिये देवताओंका स्मरण ही है। फिर भी वे तीनों लोकोंके निवासियोंके सारे कर्म किया। उनके आवाहन करनेपर सम्पूर्ण देवता वहाँ आये देखा करते हैं। कान न होनेपर भी सबकी कही हुई और सुकर्मासे इस प्रकार बोले-'ब्रह्मन् ! तुमने बातोको सुनते हैं। वे परम शान्ति प्रदान करनेवाले है। किसलिये हमें याद किया है, इसका कारण बताओ।' हाथ न होनेपर भी काम करते और पैरोंसे रहित होकर भी सुकर्माने कहा-देवगण ! विद्याधर पिप्पल सब ओर दौड़ते हैं।* वे व्यापक, निर्मल, सिद्ध, सिद्धिआज मेरे अतिथि हुए हैं, ये इस बातका प्रमाण चाहते दायक और सबके नायक हैं। आकाशस्वरूप और अनन्त * पराचीनस्य रूपस्य लिङ्गमेवं वदामि ते। येन लोकाः प्रमोहान्त इन्द्रायाः सचराचराः ॥ अयमेष जगन्नाथः सर्वगो व्यापकः परः । अस्य रूप न दृष्टं हि केनाप्येव हि योगिना । श्रुतिरेव यदस्येवं न वक्तुं शक्यतेऽपि सः । अपादा करीनासो ह्यकर्णो मुखवर्जितः ।।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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