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________________ भूमिखण्ड ] *************** . • पितृतीर्थके प्रसङ्गमें पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन मैं शुद्धभावसे मन लगाकर इन दोनोंकी पूजा करता हूँ। पिप्पल ! मुझे दूसरी तपस्यासे क्या लेना है। तीर्थयात्रा तथा अन्य पुण्यकर्मोसे क्या प्रयोजन है। विद्वान् पुरुष सम्पूर्ण यज्ञोंका अनुष्ठान करके जिस फलको प्राप्त करते हैं, वही मैंने पिता मताकी सेवासे पा लिया है। जहाँ माता-पिता रहते हों, वहीं पुत्रके लिये गङ्गा, गया और पुष्करतीर्थ है - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। माता-पिताकी सेवासे पुत्रके पास अन्यान्य पवित्र तीर्थ भी स्वयं ही पहुँच जाते हैं। जो पुत्र माता-पिताके जीते जी उनकी सेवा करता है, उसके ऊपर देवता तथा पुण्यात्मा महर्षि प्रसन्न होते हैं। पिताकी सेवासे तीनों लोक संतुष्ट हो जाते हैं। जो पुत्र प्रतिदिन माता-पिताके चरण पखारता है, उसे नित्यप्रप्ति गङ्गास्नानका फल मिलता है। * जिस पुत्रने ताम्बूल, वस्त्र, खान-पानको विविध सामग्री तथा पवित्र अत्रके द्वारा भक्तिपूर्वक माता-पिताका पूजन किया है, वह सर्वज्ञ होता है। द्विजश्रेष्ठ ! माता-पिताको स्नान कराते समय जब उनके शरीरसे जलके छोटे उछटकर पुत्रके सम्पूर्ण अङ्गपर पड़ते हैं, उस समय उसे सम्पूर्ण तीर्थो में स्नान करनेका फल होता है। यदि पिता पतित, भूखसे व्याकुल, वृद्ध सब कार्यों में असमर्थ, रोगी और कोढ़ी हो गये हों तथा माताकी भी वही अवस्था हो, उस समयमें भी जो जायते । (६२ । ७४) ........................| * मातापित्रोस्तु यः पादौ नित्यं प्रक्षालयेत्सुतः । तस्य भागीरथी स्वानमहन्यहनि + तयोश्चापि द्विजश्रेष्ठ मातापित्रोश्च स्नातयोः पुत्रस्यापि हि सर्वाङ्गे पतन्त्यम्युकणा यदा ॥ सर्वतीर्थसमं स्नानं पुत्रस्यापि प्रजायते।.... पतितं क्षुधितं वृद्धमशक्तं सर्वकर्मसु व्याधितं कुष्ठिनं तातं मातरं च तथाविधाम् ॥ उपाचरति यः पुत्रस्तस्य पुण्यं वदाम्यहम्। विष्णुस्तस्य प्रसन्नात्मा जायते नात्र संशयः ॥ प्रयाति वैष्णवं लोकं यदप्राप्यं हि योगिभिः । पितरी विकली दोनों वृद्धौ दुःखितमानसौ ॥ महागदेन संतप्तौ परित्यजति पापधीः । स पुत्रो नरकं याति दारुणं कृमिसंकुलम् ॥ वृद्धाभ्यां यः समाहूतो गुरुभ्यामिह साम्प्रतम्। न प्रयाति सुतो भूत्वा तस्य पापं वदाम्यहम् ॥ विष्ठाशी जायते मूढोऽमेध्यभोजी न संशयः । यावज्जन्मसहस्रं तु पुनः श्वानोऽभिजायते ॥ पुत्रगेहे स्थितौ मातापितरौ वृद्धको तथा स्वयं ताभ्यां विना भुक्त्वा प्रथमं जायते घृणिः ॥ सूत्रं विष्ठां च भुञ्जीत यावज्जन्मसहस्रकम् कृष्णसपों भवेत्पापी यावज्जन्मशतत्रयम् ॥ (६३ । १ – १० ) पितरौ कुत्सते पुत्रः कटुकैर्वचनैरपि। स च पापी भवेद्व्याघ्रः पचाद्दुःखी प्रजायते । मातरं पितरं पुत्रो न नमस्यति पापधीः कुम्भीपाके नास्ति मातुः परं तीर्थ पुत्राणां च पितुस्तथा। नारायणसमावेताविह चैव परत्र च ।। (६३ । ११-१३) 720 वसेत्तावद्यावद्युगसहस्वकम् ॥ २८५ पुत्र उनकी सेवा करता है, उसपर निस्सन्देह भगवान् श्रीविष्णु प्रसन्न होते हैं। वह योगियोंके लिये भी दुर्लभ भगवान् श्रीविष्णुके धामको प्राप्त होता है। जो किसी अङ्गसे हीन, दीन, वृद्ध, दुःखी तथा महान् रोगसे पीड़ित माता-पिताको त्याग देता है, वह पापात्मा पुत्र कीड़ोंसे भरे हुए दारुण नरकमें पड़ता है। जो पुत्र बूढ़े माँ-बापके बुलानेपर भी उनके पास नहीं जाता, वह मूर्ख विष्ठा खानेवाला कीड़ा होता है तथा हजार जन्मोंतक उसे कुत्तेकी योनिमें जन्म लेना पड़ता है। वृद्ध माता-पिता जब घरमें मौजूद हो, उस समय जो पुत्र पहले उन्हें भोजन कराये बिना स्वयं अन्न ग्रहण करता है, वह घृणित कीड़ा होता है और हजार जन्मोंतक मल-मूत्र भोजन करता है। इसके सिवा वह पापी तीन सौ जन्मोंतक काला नाग होता है। जो पुत्र कटु वचनोंद्वारा माता-पिताकी निन्दा करता है, वह पापी बाघकी योनिमें जन्म लेता है तथा और भी बहुत दुःख उठाता है। जो पापात्मा पुत्र माता-पिताको प्रणाम नहीं करता, वह हजार युगोंतक कुम्भीपाक नरकमें निवास करता है। पुत्रके लिये माता-पितासे बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है। माता-पिता इस लोक और परलोकमें भी नारायणके समान हैं। इसलिये महाप्राज्ञ ! मैं प्रतिदिन माता-पिताकी पूजा करता और उनके योग क्षेमकी चिन्तामें लगा रहता हूँ। इसीसे तीनों लोक मेरे वशमें हो €0 JANAND .
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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