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________________ २१६ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण अनुष्ठान किया। क्रमशः एक वर्ष व्यतीत होनेपर राजाका श्रवण करता है, उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है। इस रोग दूर हो गया। इस प्रकार उस भयङ्कर रोगके नष्ट हो अत्यन्त गोपनीय रहस्यका भगवान् सूर्यने यमराजको जानेपर राजाने सम्पूर्ण जगत्को अपने वशमें करके सबके उपदेश दिया था। भूमण्डलपर तो व्यासके द्वारा ही इसका द्वारा प्रभातकालमें सूर्यदेवताका पूजन और व्रत कराना प्रचार हुआ है। २. । आरम्भ किया। सब लोग कभी हविष्यान खाकर और ब्रह्माजी कहते हैं-नारद ! इस तरह नाना कभी निराहार रहकर सूर्यदेवताका पूजन करते थे। इस प्रकारके धर्मोका निर्णय सुनाकर भगवान् व्यास शम्याप्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन वर्गोके द्वारा प्राशमें चले गये । तुम भी इस तत्त्वको श्रद्धापूर्वक जानकर पूजित होकर भगवान् सूर्य बहुत सन्तुष्ट हुए और सुखसे विचरो और समयानुसार भगवान् श्रीविष्णुके कृपापूर्वक राजाके पास आकर बोले- 'राजन् ! तुम्हारे सुयशका सानन्द गान करते रहो। साथ ही जगत्को मनमें जिस वस्तुकी इच्छा हो, उसे वरदानके रूपमें माँग धर्मका उपदेश देते हुए जगद्गुरु भगवानको प्रसन्न करो। लो। सेवको और पुरवासियोसहित तुम सब लोगोंका हित पुलस्त्यजी कहते हैं-भीष्म ! ब्रह्माजीके ऐसा करनेके लिये मैं उपस्थित हूँ।' कहनेपर देवर्षि नारद मुनिवर श्रीनारायणका दर्शन करनेके . राजाने कहा-सबको नेत्र प्रदान करनेवाले लिये गन्धमादन पर्वतपर बदरिकाश्रम तीर्थमें चले गये। भगवन् ! यदि आप मुझे अभीष्ट वरदान देना चाहते हैं, महाराज ! इस प्रकार यह सारा सृष्टिखण्ड मैंने तो ऐसी कृपा कीजिये कि हम सब लोग आपके पास क्रमशः तुम्हें सुना दिया। यह सम्पूर्ण वेदार्थोंका सार है, रहकर ही सुखी हों। इसे सुनकर मनुष्य भगवानका सान्निध्य प्राप्त करता है। - सूर्य बोले-राजन् ! तुम्हारे मन्त्री, पुरोहित, यह परम पवित्र, यशका निधान तथा पितरोंको अत्यन्त ब्राह्मण, खियाँ तथा अन्य परिवारके लोग-सभी शुद्ध प्रिय है। यह देवताओंके लिये अमृतके समान मधुर तथा होकर कल्पपर्यन्त मेरे रमणीय धाममें निवास करें। पापी पुरुषोंको भी पुण्य प्रदान करनेवाला है। जो मनुष्य व्यासजी कहते हैं-यों कहकर संसारको नेत्र ऋषियोंके इस शुभ चरित्रका प्रतिदिन श्रवण करता है, वह प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। सब पापोंसे मुक्त हो स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तदनन्तर राजा भद्रेश्वर अपने पुरवासियोंसहित सत्ययुगमें तपस्या, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ तथा दिव्यलोकमें आनन्दका अनुभव करने लगे। वहाँ जो कलियुगमें एकमात्र दानकी विशेष प्रशंसा की गयी है। कीड़े-मकोड़े आदि थे, वे भी अपने पुत्र आदिके साथ सम्पूर्ण दानों में भी समस्त भूतोंको अभय देना-यही प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको सिधारे। इसी प्रकार राजा, ब्राह्मण, सर्वोत्तम दान है; इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है।* कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले मुनि तथा क्षत्रिय आदि तीर्थ और श्राद्धके वर्णनसे युक्त यह पुराण-खण्ड कहा अन्य वर्ण सूर्यदेवताके धाममें चले गये। जो मनुष्य गया। यह पुण्यजनक, पवित्र, आयुवर्धक और सम्पूर्ण पवित्रतापूर्वक इस प्रसङ्गका पाठ करता है, उसके सब पापोंका नाशक है। जो मनुष्य इसका पाठ या श्रवण पापोंका नाश हो जाता है तथा वह रुद्रकी भाँति इस करता है, वह श्रीसम्पन्न होता है तथा सब पापोंसे मुक्त हो पृथ्वीपर पूजित होता है। जो मानव संयमपूर्वक इसका लक्ष्मीसहित भगवान् श्रीविष्णुको प्राप्त कर लेता है। ॥ सृष्टिखण्ड सम्पूर्ण ॥ * सर्वेषामेव दानानामिदमेवैकमुत्तमम् । अभयं सर्वभूतानां नास्ति दानमतः परम् ॥(८२ । ३९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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