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________________ • अर्चयख हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पदापुराण आपको नमस्कार है। प्रभाकर ! आपको नमस्कार है।' अत्यन्त सुन्दर तथा शोभासम्पन्न थीं। धर्मका काम इस प्रकार सूर्यदेवको नमस्कार करके तीन बार समझकर उसने उन प्रतिमाओंके बनानेकी मजदूरी नहीं उनकी प्रदक्षिणा करे । फिर द्विज, गौ और सुवर्णका स्पर्श ली थी। उस नमकके पर्वतपर जो सोनेके वृक्ष लगाये करके अपने घरमें जाय और वहाँ भगवान्की पावन गये थे, उन्हें उस सुनारकी स्त्रीने तपाकर देदीप्यमान बना प्रतिमाका पूजन करे। [तदनन्तर भगवान्को भोग दिया था। [सुनारकी पत्नी भी लीलावतीके घर लगाकर बलिवैश्वदेव करनेके पश्चात्] पहले ब्राह्मणोंको परिचारिकाका काम करती थी। उन्हीं दोनोंने ब्राह्मणोंकी भोजन करा पीछे स्वयं भोजन करे । इस विधिसे नित्य- सेवासे लेकर सारा कार्य सम्पन्न किया था। तदनन्तर कर्म करके समस्त ऋषियोंने सिद्धि प्राप्त की है। दीर्घ कालके पश्चात् लीलावती वेश्या सब पापोंसे मुक्त पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! पूर्वकालकी बात होकर शिवजीके धामको चली गयी तथा वह सुनार, जो है-बृहत् नामक कल्पमें धर्ममूर्ति नामके एक राजा थे, दरिद्र होनेपर भी अत्यन्त सात्त्विक था और जिसने जिनकी इन्द्रके साथ मित्रता थी। उन्होंने सहस्रों दैत्योंका वेश्यासे मजदूरी नहीं ली थी, आप ही हैं। उसी पुण्यके वध किया था। सूर्य और चन्द्रमा भी उनके तेजके सामने प्रभावसे आप सातों द्वीपोंके स्वामी तथा हजारों सूर्योक प्रभाहीन जान पड़ते थे। उन्होंने सैकड़ों शत्रुओंको परास्त समान तेजस्वी हुए हैं। सुनारकी ही भांति उसकी पत्नीने किया था। वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे। भी सोनेके वृक्षों और देवमूर्तियोंको कान्तिमान् बनाया मनुष्योंसे उनकी कभी पराजय नहीं हुई थी। उनकी था, इसलिये वही आपकी महारानी भानुमती हुई है। पत्नीका नाम था भानुमती । वह त्रिभुवन में सबसे सुन्दरी प्रतिमाओंको जगमग बनानेके कारण महारानीका रूप थी। उसने लक्ष्मीकी भाँति अपने रूपसे देवसुन्दरियोंको अत्यन्त सुन्दर हुआ है। और उसी पुण्यके प्रभावसे आप भी मात कर दिया था। भानुमती ही राजाकी पटरानी मनुष्यलोकमें अपराजित हुए हैं तथा आपको आरोग्य थी। वे उसे प्राणोंसे भी बढ़कर मानते थे। एक दिन और सौभाग्यसे युक्त राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है; इसलिये राजसभामें बैठे हुए महाराज धर्ममूर्तिने विस्मय-विमुग्ध आप भी विधिपूर्वक धान्य-पर्वत आदि दस प्रकारके हो अपने पुरोहित मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम करके पर्वत बनाकर उनका दान कीजिये। पूछा-'भगवन् ! किस धर्मक प्रभावसे मुझे सर्वोत्तम पुलस्त्यजी कहते हैं-राजा धर्ममूर्तिने 'बहुत लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई है ? मेरे शरीरमें जो सदा उत्तम और अच्छा' कहकर वसिष्ठजीके वचनोंका आदर किया और विपुल तेज भरा रहता है-इसका क्या कारण है?' अनाज आदिके पर्वत बनाकर उन सबका विधिपूर्वक वसिष्ठजीने कहा-राजन् । प्राचीन कालमें एक दान किया। तत्पश्चात् वे देवताओंसे पूजित होकर लीलावती नामकी वेश्या थी, जो सदा भगवान् शङ्करके महादेवजीके परम धामको चले गये। जो मनुष्य इस भजनमें तत्पर रहती थी। एक बार उसने पुष्करमें प्रसङ्गका भक्तिपूर्वक श्रवण करता है, वह भी पापरहित चतुर्दशीको नमकका पहाड़ बनाकर सोनेकी बनी हो स्वर्गलोकमें जाता है। राजन् ! अनादि पर्वतोंके देवप्रतिमाके साथ विधिपूर्वक दान किया था। शुद्ध दानका पाठमात्र करनेसे दुःस्वप्रोंका नाश हो जाता है; नामका एक सुनार था, जो लीलावतीके घरमें नौकरका फिर जो इस पुष्कर क्षेत्रमें शान्तचित्त होकर सब प्रकारके काम करता था। उसीने बड़ी श्रद्धाके साथ मुख्य-मुख्य पर्वतोंका स्वयं दान करता है, उसको मिलनेवाले फलका देवताओंकी सुवर्णमयी प्रतिमाएं बनायी थीं, जो देखनेमें क्या वर्णन हो सकता है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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