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________________ २५४ . अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • सप्तर्षियोंके यों कहने पर वेन हँसकर बोला मैं ही परम धर्म हूँ और मैं ही सनातन देवता अर्हन् हूँ। धाता, 100 are सूतजी कहते हैं— द्विजवरो! ऋषियोंके पुण्यमय संसर्गसे, उनके साथ वार्तालाप करनेसे तथा उनके द्वारा शरीरका मन्थन होनेसे, वेनका पाप निकल गया। तत्पश्चात् उसने नर्मदाके दक्षिण तटपर रहकर तपस्या आरम्भ की। तृणविन्दु ऋषिके पापनाशक आश्रमपर निवास करते हुए वेनने काम-क्रोधसे रहित हो सौ वर्षोंसे [ संक्षिप्त पद्मपुराण इसलिये तुम सत्यका आचरण करो। यह जैनधर्म सत्ययुग, त्रेता और द्वापरका धर्म नहीं है; कलियुगका प्रवेश होनेपर ही कुछ मनुष्य इसका आश्रय लेंगे। जैनधर्म ग्रहण करके सब मनुष्य पापले मोहित हो जायँगे वे वैदिक आचारका त्याग करके पाप बटोरेंगे। भगवान् श्रीगोविन्द सब पापोंके हरनेवाले हैं। वे ही कलियुगमें पापोंका संहार करेंगे। पापियोंके एकत्रित होनेपर म्लेच्छोंका नाश करनेके लिये साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु ही कल्किरूपमें अवतीर्ण होंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। अतः वेन ! तुम कलियुगके व्यवहारको त्याग दो और पुण्यका आश्रय लो। वेनने कहा- ब्राह्मणो! मैं ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ हूँ, विश्वका ज्ञान मेरा ही ज्ञान है जो मेरी आज्ञाके विपरीत बर्ताव करता है, वह निश्चय ही दण्डका पात्र है। पापबुद्धि राजा वेनको बहुत बढ़ बढ़कर बातें करते देख ब्रह्माजीके पुत्र महात्मा सप्तर्षि कुपित हो उठे। उनके शापके भयसे वेन एक बाँबीमें घुस गया; किन्तु वे ब्रह्मर्षि उस क्रूर पापीको वहाँसे बलपूर्वक पकड़ लाये और क्रोधमें भरकर राजाके बायें हाथका मन्थन करने लगे। उससे एक नीच जातिका मनुष्य पैदा हुआ, जो बहुत ही नाटा, काला और भयङ्कर था। वह निषादों और विशेषतः म्लेच्छोंका धारण-पोषण करनेवाला राजा हुआ। तत्पश्चात् ऋषियोंने दुरात्मा वेनके दाहिने हाथका मन्थन किया। उससे महात्मा राजा पृथुका जन्म हुआ, जिन्होंने वसुन्धराका दोहन किया था। उन्होंके पुण्यप्रसादसे राजा बेन धर्म और अर्थका ज्ञाता हुआ। 14 रक्षक और सत्य भी मैं ही हूँ। मैं परम पुण्यमय सनातन जैनधर्म हूँ। ब्राह्मणो ! मुझ धर्मरूपी देवताका हो तुमलोग अपने कर्मोद्वारा भजन करो।' ऋषि बोले- राजेन्द्र ! ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यये तीन वर्ण द्विजाति कहलाते हैं। इन सभी वर्णोंके लिये सनातन श्रुति ही परम प्रमाण है। समस्त प्राणी वैदिक आचारसे ही रहते हैं और उसीसे जीविका चलाते हैं। राजाके पुण्यसे प्रजा सुखपूर्वक जीवन निर्वाह करती है और राजाके पापसे उसका नाश हो जाता है; ★ वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश - कुछ अधिक कालतक तप किया। राजा वेन निष्पाप हो गया था। अतः उसकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीविष्णुने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और प्रसन्नतापूर्वक कहा- 'राजन् ! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो।' वेनने कहा - - देवेश्वर ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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