SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६० ***************** • अर्चयस्व इषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • --------------- है। [राम-नाम लेनेसे ब्रह्महत्या जैसे पातक भी दूर हो जाते हैं।] सुमित्रानन्दन! इस समय तुम्हारा यज्ञ सम्बन्धी घोड़ा पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिके निकट जा पहुँचा है। महामते। तुम भी वहाँ चलकर भगवान् पुरुषोत्तमको नमस्कार करो। वहाँ जानेसे हम सब लोग निष्पाप होकर अन्तमें परमपदको प्राप्त होंगे; क्योंकि भगवान्‌के प्रसादसे अबतक अनेक मनुष्य भवसागरके पार हो चुके हैं। [शेषजी कहते हैं- ] वात्स्यायनजी! इस प्रकार [ संक्षिप्त पद्मपुराण शेषजी कहते हैं—मुने! तदनन्तर वह घोड़ा नीलाचलपर थोड़ी देर ठहरकर घास चरता हुआ आगे बढ़ गया। उसका वेग मनके समान तीव्र था श्रेष्ठ वीर शत्रुघ्न, राजा लक्ष्मीनिधि, भयङ्कर वाहनवाले राजकुमार पुष्कल तथा राजा प्रतापाग्रय- ये सभी उसकी रक्षा कर रहे थे। कई करोड़ वीरोंसे सुरक्षित वह यज्ञसम्बन्धी अश्व क्रमशः आगे बढ़ता हुआ राजा सुबाहुद्वारा परिपालित चक्राङ्का नगरीके पास जा पहुँचा। उस समय राजाका पुत्र दमन शिकार खेल रहा था। उसकी दृष्टि उस घोड़ेपर पड़ी, जो चन्दन आदिसे चर्चित तथा मस्तकमें सुवर्णमय पत्रसे शोभायमान था। राजकुमार दमनने उस पत्रको बाँचा, सुन्दर अक्षरोंमें लिखा होनेके कारण उसकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्रका अभिप्राय समझकर वह बोला- 'अहो ! भूमण्डलपर मेरे पिताजीके जीते जी यह इतना बड़ा अहङ्कार कैसा ? जिसने यह घमण्ड दिखाया है उसे मेरे धनुषसे छूटे हुए बाण इस उद्दण्डताका फल चखायेंगे। आज मेरे तीखे बाण शत्रुनके समस्त शरीरको घायल करके उन्हें लहू-लुहान कर देंगे, जिससे वे फूले हुए पलाशकी भांति दिखायी देंगे। आज सभी श्रेष्ठ योद्धा मेरी भुजाओंका महान् बल देखें ! मैं अपने धनुर्दण्डसे करोड़ों बाणोंकी वर्षा करूंगा।' सुमति भगवान्‌की महिमाका वर्णन कर रहे थे इतनेहीमें वह अश्व पृथ्वीको अपनी टापोंसे खोदता हुआ वायुके समान वेगसे चलकर नीलाचलपर पहुँच गया। तब राजा शत्रुघ्न भी उसके पीछे-पीछे जाकर नीलगिरिपर पहुँचे और गङ्गासागर सङ्गममें स्नान करके पुरुषोत्तमका दर्शन करनेके लिये गये निकट जाकर उन्होंने देव-दानववन्दित भगवान्‌को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके अपनेको कृतार्थ माना । ★ चक्राङ्का नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापाश्यको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना नगरमें भेज दिया और स्वयं हर्ष तथा उत्साहमें भरकर सेनापतिसे कहा- 'महामते ! शत्रुओंका सामना करनेके लिये मेरी सेना तैयार कर दो।' इस प्रकार सेनाको सुसज्जित करके वह शीघ्र ही युद्ध क्षेत्रमें सामने जाकर डट गया। उस समय उसका स्वरूप बड़ा उम्र दिखायी देता था। इसी बीचमें घोड़ेके पीछे चलनेवाले योद्धा भी वहाँ आ पहुँचे और अत्यन्त व्याकुल होकर बारम्बार एक-दूसरेसे पूछने लगे- 'महाराजका वह यज्ञसम्बन्धी अश्व, जो भालपत्रसे चिह्नित था, कहाँ चला गया ?" इतनेहीमें शत्रुओंको ताप देनेवाले राजा प्रतापाय्यने देखा, सामने ही कोई सेना तैयार होकर खड़ी है, जो वीरोचित शब्दोंका उच्चारण करती हुई गर्जना कर रही है। प्रतापाश्यके सिपाहियोंने उनसे कहा- 'महाराज जान पड़ता है, यही राजा घोड़ा ले गया है; अन्यथा यह वीर अपने सैनिकोंके साथ हमारे सामने क्यों खड़ा होता ?" यह सुनकर प्रतापाय्यने अपना एक सेवक भेजा। उसने जाकर पूछा- महाराज श्रीरामचन्द्रजीका अश्व कहाँ है ? कौन ले गया है ? क्यों ले गया है ? क्या वह भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको नहीं जानता ?' राजकुमार दमन बड़ा बलवान् था, वह सेवकका ऐसा वचन सुनकर बोला- 'अरे! भाल-पत्र आदि चिह्नोंसे अलङ्कृत उस यज्ञसम्बन्धी अश्वको मैं ले गया राजकुमार दमनने ऐसा कहकर घोड़ेको तो अपने हूँ। उसकी सेवामें जो शूरवीर हों, वे आवें और मुझे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy