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भूमिखण्ड ]
. पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन ,
आचरण करता है, उसे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ता आयु पूरी नहीं हो जाती। जो स्त्री, पुत्र और मित्रोंकी है। इसलिये दान, श्राद्ध तथा पर्वके अवसरपर अवहेलना करता है, उसके इस कार्यको भी गुरुनिन्दाके ब्राह्मणको निमन्त्रित करना आवश्यक है। पहले समान महान् पातक समझना चाहिये। ब्राह्मणकी हत्या ब्राह्मणकी भलीभाँति जाँच और परख कर लेनी चाहिये, करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, शराबी, गुरुकी शय्यापर उसके बाद उसे श्राद्ध और दानमें सम्मिलित करना सोनेवाला तथा इनका सहयोगी-ये पाँच प्रकारके उचित है। जो बिना ब्राह्मणके श्राद्ध करता है, उसके मनुष्य महापातकी माने गये हैं। जो क्रोध, द्वेष, भय घरमें पितर भोजन नहीं करते, शाप देकर लौट जाते हैं। अथवा लोभसे विशेषतः ब्राह्मणके मर्म आदिका उच्छेद ब्राह्मणहीन श्राद्ध करनेसे मनुष्य महापापी होता है तथा करता है, दरिद्र भिक्षुक ब्राह्मणको द्वारपर बुलाकर पीछे ब्राह्मणघाती कहलाता है। राजन् ! जो पितृकुलके कोरा जवाब दे देता है, जो विद्याके अभिमानमें आकर आचारका परित्याग करके स्वेच्छानुसार बर्ताव करता है, सभा उदासीन भावसे बैठे हुए ब्राह्मणोंको भी निस्तेज उसे महापापी समझना चाहिये; वह सब धर्मोसे बहिष्कृत कर देता है तथा जो मिथ्या गुणोंद्वारा अपनेको जबर्दस्ती है। जो पापी मनुष्य शिवकी परिचर्या छोड़कर ऊँचा सिद्ध करता है और गुरुको ही उपदेश करने लगता शिवभक्तोंसे द्वेष रखते हैं तथा जो ब्राह्मणोंसे द्रोह करते है-इन सबको ब्राह्मणघाती माना गया है। हुए सदा भगवान् श्रीविष्णुकी निन्दा करते हैं, वे महापापी जिनका शरीर भूख और प्याससे पीड़ित है, जो हैं, सदाचारको निन्दा करनेवाले पुरुषोंकी गणना भी इसी अत्र खाना चाहते हैं, उनके कार्यमें विन खड़ा करनेवाला श्रेणीमें है।
मनुष्य भी ब्राहाणघाती ही है। जो चुगलखोर, सब सर्वप्रथम उत्तम ज्ञानस्वरूप पुण्यमय भागवत लोगोंके दोष ढूँढ़ने में तत्पर, सबको उद्वेगमें डालनेवाला पुराणकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् विष्णुपुराण, और क्रूर है तथा जो देवताओं, ब्राह्मणों और गौओंके हरिवंश, मत्स्यपुराण और कूर्मपुराणका पूजन करना निमित्त पहलेकी दी हुई भूमिको हर लेता है, उसे उचित है। जो पद्मपुराणकी पूजा करते हैं, उनके द्वारा ब्रह्मघाती कहते हैं। दूसरोंके द्वारा उपार्जित द्रव्यका और भगवान् श्रीमधुसूदनकी प्रत्यक्ष पूजा हो जाती है। जो ब्राह्मणके धनका अपहरण भी ब्रह्महत्याके समान ही श्रीभगवान्के ज्ञानस्वरूप पुराणकी पूजा किये बिना ही भारी पातक है। जो अग्निहोत्र तथा पञ्चयज्ञादि कर्मोका उसे पढ़ते और लिखते हैं, लोभमें आकर बेच देते हैं, परित्याग करके माता, पिता और गुरुका अनादर करता अपवित्र स्थानमें मनमाने ढंगसे रख देते हैं तथा स्वयं है, झूठी गवाही देता है, शिवभक्तोंकी बुराई और अशुद्ध रहकर अशुद्ध स्थानमें पुराणकी कथा कहते और अभक्ष्य वस्तुका भक्षण करता है, वनमें जाकर निरपराध सुनते हैं, उनका यह सब कार्य गुरुनिन्दाके समान माना प्राणियोंको मारता है तथा गोशाला, देवमन्दिर, गाँव और गया है। जो गुरुकी पूजा किये बिना ही उनसे शास्त्र नगरमें आग लगाता है, उसके ये भयङ्कर पाप पूर्वोक्त श्रवण करना चाहता है, गुरुकी सेवा नहीं करता, उनकी पापोंके ही समान हैं। आज्ञा भङ्ग करनेका विचार रखता है, उनकी बातका दीनोंका सर्वस्व छीन लेना, परायी स्त्री, दूसरेके अभिनन्दन नहीं करता, अपितु प्रतिवाद कर देता है, हाथी, घोड़े, गौ, पृथ्वी, चाँदी, रत्न, अनाज, रस, चन्दन, गुरुके कार्यकी, करनेयोग्य होनेपर भी, उपेक्षा करता है अरगजा, कपूर, कस्तूरी, मालपूआ और वस्त्रको चुरा तथा जो गुरुको रोगादिसे पीड़ित, असमर्थ, विदेशकी लेना तथा परायी धरोहरको हड़प लेना-ये सब पाप ओर प्रस्थित और शत्रुओद्वारा अपमानित देखकर भी सुवर्णकी चोरीके समान माने गये हैं। विवाह करनेयोग्य उनका साथ छोड़ देता है, वह पापी तबतक कुम्भीपाक कन्याका योग्य वरके साथ विवाह न करना, पुत्र एवं नरकमें निवास करता है, जबतक कि चौदह इन्द्रोंकी मित्रकी भार्याओं और अपनी बहिनोंके साथ समागम