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________________ उत्तरखण्ड] . भगवान् विष्णुकी महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण • १२३ तथा परमार्थवेत्ता हो। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको ही और नारदजीको भी उक्त मन्त्रका उपदेश दिया। तत्पश्चात् आचार्य कहा गया है। जो आचारकी शिक्षा दे, उसीका नैमिषारण्यवासी शौनकादि महर्षियोंको नारदजीने इस नाम आचार्य है। जो आचार्यके अधीन हो, उनके मन्त्रका उपदेश दिया, जो शरणागतोंकी रक्षा करता है। अनुशासनमें मन लगाये और आज्ञापालनमें स्थिरचित्त राजन् ! महर्षि भी इस गुह्यतम मन्त्रको नहीं जानते। हो, उसे ही साधु पुरुषोंने शिष्य कहा है। ऐसे लक्षणोंसे लक्ष्मी और नारायण-ये दोनों मन्त्र परम रहस्यमय है। युक्त सर्वगुणसम्पन्न शिष्यको विधिपूर्वक उत्तम इन दोनोंसे श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं है। इन दोनोंसे श्रेष्ठ मन्त्ररत्रका उपदेश करे । द्वादशीको, श्रवण नक्षत्रमें या धर्म सम्पूर्ण लोकोंमें कोई नहीं है। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें वैष्णवके बताये हुए किसी भी समयमें उत्तम आचार्यकी तीन बार सत्यकी प्रतिज्ञा करके कहा था-'मनुष्योंको प्राप्ति होनेपर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। मुक्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् नारायणसे बढ़कर वसिष्ठजी कहते हैं-इस प्रकार मन्त्ररत्नका दूसरा कोई देवता नहीं है। उनकी सेवा ही सम्पूर्ण उपदेश पाकर तीनों लोकोंके सामने ब्रह्माजीने मुझको शुभाशुभ कर्मोका मूलोच्छेद करनेवाला मोक्ष है।' भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण राजा दिलीपने कहा-भगवन् ! हरिभक्तिमयी श्रीमहादेवजीने कहा-सब लोकोका हित सुधासे पूर्ण आपके वचनोंको सुननेसे मुझे तृप्ति नहीं चाहनेवाली महादेवी ! तुम्हें साधुवाद । तुम जो भगवान् होती-अधिकाधिक सुननेकी इच्छा बढ़ती जाती है। लक्ष्मीपतिके उत्तम माहात्म्यके विषयमें प्रश्न करती हो, अतः इस विषयमें जितनी बातें हों, सब बताइये। यह बहुत ही उत्तम है। पार्वती ! तुम धन्य हो, पुण्यात्मा मुनिश्रेष्ठ ! इस भयानक संसाररूपी वनमें आध्यात्मिक हो और भगवान् विष्णुकी भक्त हो। तुम्हारा कल्याण हो, आदि तीनों तापोंके दावानलकी महाज्वालासे सन्तप्त हुए मैं तुम्हारे शील, रूप और गुणोंसे सदा ही सन्तुष्ट रहता मनुष्योंके लिये श्रीहरिभक्तिमयी सुधाके समुद्रको हूँ। गिरिजे ! मैं उत्तम भगवद्भक्ति, भगवान् विष्णुके छोड़कर दूसरा कौन-सा आश्रय हो सकता है? स्वरूप तथा उनके मन्त्रोंके विधानका वर्णन करता हूँ महामुने! मुनिजन जिनकी सदा उपासना करते हैं, सुनो । भगवान् नारायण ही परमार्थतत्त्व हैं। वे ही विष्णु, परमात्माकी भक्तिके उन विभिन्न रूपोंको इस समय वासुदेव, सनातन, परमात्मा, परब्रह्म, परम ज्योति, विस्तारके साथ बतलाइये। परात्पर, अच्युत, पुरुष, कृष्ण, शाश्वत, शिव, ईश्वर, वसिष्ठजीने कहा-राजेन्द्र ! तुम्हारा प्रश्न बहुत नित्य, सर्वगत, स्थाणु, रुद्र, साक्षी, प्रजापति, यज्ञ, उत्तम है। यह मनुष्योंको संसार-सागरके पार साक्षात्, यज्ञपति, ब्रह्मणस्पति, हिरण्यगर्भ, सविता, उतारनेवाला है। भगवान् विष्णुकी भक्ति नित्य सुख लोककर्ता, लोकपालक और विभु आदि नामोंसे पुकारे देनेवाली है। प्राचीन कालमें कैलास पर्वतके शिखरपर जाते हैं। वे भगवान् विष्णु 'अ' अक्षरके वाच्य, भगवती पार्वतीजीने लोकपूजित भगवान् शङ्करसे इसी लक्ष्मीसे सम्पन्न, लीलाके स्वामी तथा सबके प्रभु हैं। महान् प्रश्रको पूछा था। अन्नसे जिसकी उत्पत्ति होती है, उस जीव-समुदायके पार्वतीजी बोली-देवदेव! त्रिपुरासुरको तथा अमृतत्व (मोक्ष) के भी स्वामी हैं। वे विश्वात्मा मारनेवाले महादेव ! सुरेश्वर ! मुझे विष्णुभक्तिका उपदेश सहस्रों मस्तकवाले, सहस्रों नेत्रवाले और सहस्रो कीजिये, जो सब प्राणियोंको मुक्ति देनेवाली है। पैरवाले हैं। उनका कभी अत्त नहीं होता। इसलिये वे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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