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________________ ९२४ • अर्चयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . या [संक्षिप्त पापुराण . . . अनन्त कहलाते हैं। लक्ष्मीके पति होनेसे श्रीपति नाम नारायण ही हैं। 'छन्द' दैवी गायत्री है। प्रणवको इसका धारण करते हैं। योगिजन उनमें रमण करते हैं, इसलिये 'बीज' कहा गया है। भगवान्से कभी विलग न होनेउनका नाम राम है। वे समस्त गुणोंको धारण करते हैं, वाली भगवती लक्ष्मीको ही विद्वान् पुरुष इस मन्त्रको तथापि निर्गुण हैं। महान् हैं। वे समस्त लोकोंके ईश्वर, 'शक्ति' कहते हैं। इस मन्त्रका पहला पद 'ॐ', दूसरा श्रीमान्, सर्वज्ञ तथा सब ओर मुखवाले हैं। पार्वती ! उन पद 'नमः'और तीसरा पद 'नारायणाय' है। इस प्रकार लोकप्रधान जगदीश्वर भगवान् वासुदेवके माहात्म्यका यह तीन पदोंका मन्त्र बतलाया गया है। प्रणवमें तीन जितना मुझसे हो सकेगा, वर्णन करता हूँ। वास्तवमें तो अक्षर हैं-अकार, उकार तथा मकार । प्रणवको तीनों मैं, ब्रह्माजी तथा सम्पूर्ण देवता मिलकर भी उसका पूरा वेदोंका स्वरूप बतलाया गया है। यह ब्रह्मका निवासवर्णन नहीं कर सकते। सम्पूर्ण उपनिषदोंमें भगवान्की स्थान है। अकारसे भगवान् विष्णुका और उकारसे महिमाका ही प्रतिपादन है तथा वेदान्तमें उन्हींको भगवती लक्ष्मीका प्रतिपादन होता है। मकारसे उन परमार्थ-तत्त्व निश्चित किया गया है। दोनोंके दासभूत जीवात्माका कथन है, जो पचीसवाँ अब मैं भगवान्की उपासनाके पृथक्-पृथक् भेद तत्त्व है। बतलाता हूँ, सुनो। भगवान्का अर्चन, उनके मन्त्रोंका किसी-किसीके मतमें उकार अवधारणवाची है। जप, स्वरूपका ध्यान, नामोंका स्मरण, कीर्तन, श्रवण, इस पक्षमें भी श्रीतत्त्वका प्रतिपादन उकारके ही द्वारा वन्दन, चरण-सेवन, चरणोदक-सेवन, उनका प्रसाद किया जाता है। जैसे सूर्यकी प्रभा सूर्यसे कभी अलग ग्रहण करना, भगवद्भक्तोंकी सेवा, द्वादशीव्रतका पालन नहीं होती, उसी प्रकार भगवती लक्ष्मी श्रीविष्णुसे नित्य तथा तुलसीका वृक्ष लगाना-यह सब देवाधिदेव संयुक्त रहती हैं। अकारसे जिनका बोध कराया जाता है, भगवान् विष्णुकी भक्ति है, जो भव-बन्धनसे छुटकारा वे लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु कारणके भी कारण हैं। दिलानेवाली है। सम्पूर्ण देवताओंके तथा मेरे लिये भी सम्पूर्ण जीवात्माओके प्रधान अङ्गी है। जगत्के बीज है पुरुषोत्तम श्रीहरि ही पूजनीय हैं। ब्राह्मणोंके लिये तो वे और परमपुरुष हैं। वे ही जगत्के कर्ता, पालक, ईश्वर विशेषरूपसे पूज्य हैं। अतः ब्राह्मणोंको उचित है कि वे और लोकके बन्धु-बान्धव है। तथा उनकी मनोरमा पत्नी प्रतिदिन विधिपूर्वक श्रीहरिका पूजन करें। लक्ष्मी सम्पूर्ण जगत्की माता, अधीश्वरी और आधार. श्रेष्ठ द्विजको अष्टाक्षर मन्त्रका अभ्यास करना शक्ति हैं। वे नित्य हैं और श्रीविष्णुसे कभी विलग नहीं चाहिये। प्रणवको मिलाकर ही वह मन्त्र अष्टाक्षर कहा होतीं। उकारसे उन्हींके तत्वका बोध कराया जाता है। गया है। मन्त्र है-'ॐ नमो नारायणाय' । इस प्रकार मकारसे इन दोनोंके दास जीवात्माका कथन है, जिसे इस मन्त्रको अष्टाक्षर जानना चाहिये। यह सब विद्वान् पुरुष क्षेत्रज्ञ कहते हैं। यह ज्ञानका आश्रय और मनोरथोंकी सिद्धि और सब दुःखोंका नाश करनेवाला ज्ञानरूपी गुणसे युक्त है। इसे चित्त और प्रकृतिसे परे है। इसे सर्वम-त्रस्वरूप और शुभकारक माना गया है। माना गया है। यह अजन्मा, निर्विकार, एकरूप, स्वरूपका इस मन्त्रके 'ऋषि' और 'देवता' लक्ष्मीपति भगवान् भागी, अणु, नित्य, अव्यापक, चिदानन्द-स्वरूप 'अहं' १-'दैव्येकम्' इस पिङ्गल-सूत्रके अनुसार एक अक्षरका अथवा आठ अक्षरोंके एक पदका सन्द 'दैवी गायत्री' है। पहली व्याख्याके अनुसार 'प्रणव' को और दूसरी व्याख्याके अनुसार अष्टाक्षर मन्त्रको 'दैवी गायत्री छन्दके अन्तर्गत माना गया है। इस 'दैवी गायत्री' को एकाक्षरा' या 'एकपदा' गायत्री भी कहते हैं। चौबीस अक्षरोकी तो जो प्रसिद्ध गायत्री है, वह आठ-आठ अक्षरोंके तीन पादोंसे युक्त होनेके कारण 'त्रिपदा गायत्री' कहलाती है। २-दस इन्द्रियाँ, पाँच भूत, पाँच इन्द्रियोंके विषय, मन, अहंकार, महतत्व और प्रकृति-ये चौवीस तत्त्व है; इनका साक्षी चेतन पचीसवाँ तत्त्व है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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