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________________ उत्तरखण्ड] • भगवान् विष्णुकी महिमा तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण . ९२५ पदका अर्थ, अविनाशी, क्षेत्र (शरीर) का अधिष्ठाता, उनका दास बना रहूँ।' इस भावसे स्वेच्छापूर्वक अपने भिन्न-भिन्न रूप धारण करनेवाला, सनातन, जलाने, आत्माको ईश्वरकी सेवामें लगाना चाहिये। इस प्रकार काटने, गलाने और सुखानेमे न आनेवाला तथा मनके द्वारा अहंता, ममताका त्याग करना उचित है। अविनाशी है। ऐसे गुणोंसे युक्त जो जीवात्मा है, वह देहमें जो अहंबुद्धि होती है, वही संसार-बन्धनका मूल सदा परमात्माका अङ्गभूत है। वह केवल श्रीहरिका ही कारण है। वही कोक बन्धनमें डालती है। अतः विद्वान् दास है और किसीका नहीं। इस प्रकार मध्यम अक्षर पुरुष अहङ्कारको त्याग दे।* उकारके द्वारा जीवके दासभावका ही अवधारण पार्वती ! अब मैं 'नारायण' शब्दकी व्याख्या करता (निश्चय) किया जाता है। इस तरह प्रणवका अर्थ हूँ। शुभे ! नर अर्थात् जीवोंके समुदायको नार कहते हैं। जानना चाहिये। प्रणवका अर्थ स्पष्ट हो जानेपर शेष उन 'नार' शब्दवाच्य जीवोंके अयन-गति अर्थात् मन्त्रके द्वारा परमात्माके दासभूत जीवकी परतन्त्रता ही आश्रय परम पुरुष श्रीविष्णु हैं। अतः वे नारायण सिद्ध होती है। वह कभी स्वतन्त्र नहीं होता। अतः कहलाते हैं। अथवा नार यानी जीव उन भगवान्के अपनी स्वतन्त्रताके महान् अहङ्कारको मनसे दूर कर देना अयन-निवासस्थान है। इसलिये भी उन्हें नारायण चाहिये। अहङ्कार-बुद्धिसे जो कर्म किया जाता है, कहा जाता है। जड़-चेतनरूप जितना भी जगत् देखा या उसका भी निषेध है। - सुना जाता है, उसको पूर्णरूपसे व्याप्त करके भगवान् 'मनस्'-मन शब्दमें जो मकार है, वह नित्य विराजमान हैं। इसलिये उनका नाम नारायण हैं। अहङ्कारका वाचक है और नकार उसका निषेध करने- जो कल्पके अन्तमें सम्पूर्ण जगत्को अपना ग्रास बनाकर वाला है। अतः मनसे ही जीवके लिये अहङ्कार- अपने ही भीतर धारण करते हैं और सृष्टिके त्यागकी प्रेरणा मिलती है। अहङ्कारसे युक्त मनुष्यको आरम्भकालमें पुनः सबकी सृष्टि करते हैं, वे भगवान् तनिक भी सुख नहीं मिलता। जिसका चित्त अहङ्कारसे नारायण कहे गये हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् नार मोहित है, वह घोर अन्धकारसे पूर्ण नरकमें गिरता है। कहलाता है। उसको जिनका संग नित्य प्राप्त है अथवा इसलिये मनके द्वारा क्षेत्रज्ञकी स्वतन्त्रताका निषेध किया उसे जिनके द्वारा उत्तम गति प्राप्त होती है, उन्हें नारायण गया है। वह भगवान्के अधीन है। भगवान्के अधीन कहते हैं। जलसे फेनकी भांति जिनसे सम्पूर्ण लोक ही उसका जीवन है। अत: चेतन जीवात्मा किसी उत्पन्न होते और पुनः जिनमें लीन हो जाते हैं, उन साधनका स्वतन्त्र कर्ता नहीं है। ईश्वरके संकल्पसे ही भगवानको नारायण कहा गया है। जो अविनाशी पद, सम्पूर्ण चराचर जगत् अपने-अपने व्यापारमें लगा है। नित्यस्वरूप तथा नित्यप्राप्त भोगोंसे सम्पन्न हैं, साथ ही अतः जीव अपने सामर्थ्यपर निर्भर रहना छोड़ दे। जो सम्पूर्ण जगत्का शासन करनेवाले हैं, उन भगवान्का ईश्वरके सामर्थ्य से उसके लिये कुछ भी अलभ्य नहीं है। नाम नारायण है। दिव्य, एक, सनातन और अपनी अपना सारा भार भगवान् लक्ष्मीपतिको सौंपकर उनकी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले श्रीहरि ही नारायण आराधनाके ही कर्म करे। 'श्रीहरि परमात्मा हैं। मैं सदा कहलाते हैं। द्रष्टा और दृश्य, श्रोता और श्रोतव्य, स्पर्श • यहाँ मूलमें 'मनस्' शब्दका पाठ होनेसे मनका ही उल्लेख किया गया है किन्तु प्रकरण देखनेसे मालूम होता है, 'मनस्' की जगह 'नमस्' पाठ होना चाहिये। यहाँ अष्टाक्षर मन्चकी व्याख्या चल रही है मबका स्वरूप है-'ॐ नमो नारायणाय। इसमें ॐकारको व्याख्या विस्तारके साथ की गयी है। इसके बाद 'नमस् की व्याख्याका प्रसङ्ग है, जिसे शायद भूलसे मनस् लिखा गया है। इसके आगे 'नारायणाय' पदकी व्याख्या मिलती है। अतः यहाँ 'मनम् के मकार-कारसे जो भाव लिया गया है, वह 'नमः' के नकार-मारका भाव है-ऐसा समझना चाहिये।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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