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________________ ८६२ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम्. • धैर्यवान् महात्मा थे। उन्होंने उसकी विपरीत अवस्थाएँ देखकर जान लिया कि यह कोई दुर्गतिमें पड़ा हुआ जीव है। तब उन्होंने पूछा- 'अरे भाई ! तू कौन है ? रात्रिके समय अत्यन्त भयानक रूपमें क्यों प्रकट हुआ है ? तेरी ऐसी दशा क्यों हुई है ? हमें बता तो सही, तृ प्रेत है या पिशाच है अथवा कोई राक्षस है ?" 1 उनके ऐसा पूछनेपर वह बारम्बार उच्चस्वरसे रोदन करने लगा। उसमें बोलनेकी शक्ति नहीं थी; इसलिये केवल सङ्केत मात्र किया। तब गोकर्णजीने अञ्जलिमें जल ले उसे अभिमन्त्रित करके धुन्धुकारीके ऊपर छिड़क दिया। उस जलसे सींचनेपर उसका पाप-ताप कुछ कम हुआ। तब वह इस प्रकार कहने लगा'भैया! मैं तुम्हारा भाई धुन्धुकारी हूँ। मैंने अपने ही दोषसे अपने ब्राह्मणत्वका नाश किया है। मैं महान् अज्ञानमें चक्कर लगा रहा था; अतः मेरे पापकर्मोंकी कोई गिनती नहीं है। मैंने बहुत लोगोंकी हिंसा की थी। अतः मैं भी स्त्रियोंद्वारा तड़पा-तड़पाकर मारा गया। इसीसे मैं प्रेत योनिमें पड़कर दुर्दशा भोग रहा हूँ। अब दैवाधीन कर्मफलका उदय हुआ है, इसलिये मैं वायु पीकर जीवन धारण करता हूँ। मेरे भाई! तुम दयाके समुद्र हो। अब किसी प्रकार जल्दी ही मेरा उद्धार करो।' धुन्धुकारीकी बात सुनकर गोकर्ण बोलेभाई! यह तो बड़े आश्चर्यकी बात है। मैंने तो तुम्हारे लिये गयाजीमें विधिपूर्वक पिण्डदान किया है, फिर तुम्हारी मुक्ति कैसे नहीं हुई ? यदि गया श्राद्धसे भी मुक्ति न हो, तो यहाँ दूसरा तो कोई उपाय ही नहीं है। प्रेत ! इस समय मुझे क्या करना चाहिये ? यह तुम्हीं विस्तार पूर्वक बताओ। प्रेतने कहा-भाई सैकड़ों गया श्राद्ध करनेसे भी मेरी मुक्ति नहीं होगी। इसके लिये अब तुम और ही कोई उपाय सोचो। - प्रेतकी यह बात सुनकर गोकर्णको बड़ा विस्मय हुआ। वे कहने लगे- 'यदि सैकड़ों गया श्राद्धसे तुम्हारी मुक्ति नहीं होगी, तब तो तुम्हें इस प्रेत योनिसे छुड़ाना असम्भव ही है। अच्छा, इस समय तो तुम अपने [ संक्षिप्त पद्मपुराण स्थानपर ही निर्भय होकर रहो। तुम्हारी मुक्तिके लिये कोई दूसरा उपाय सोचकर उसीको काममें लाऊँगा ।' गोकर्णजीकी आज्ञा पाकर धुन्धुकारी अपने स्थानपर चला गया। इधर गोकर्णजी रातभर सोचते-विचारते रहे। किन्तु उसके उद्धारका कोई भी उपाय उन्हें नहीं सूझा। सबेरा होनेपर उन्हें आया देख गाँवके लोग बड़े प्रेमके साथ उनसे मिलनेके लिये आये। तब गोकर्णन रातमें जो घटना घटित हुई थी, वह सब उन्हें कह सुनायी। उनमें जो लोग विद्वान्, योगनिष्ठ, ज्ञानी और ब्रह्मवादी थे, उन्होंने शास्त्र-ग्रन्थोंको उलट-पलटकर देखा; किन्तु उन्हें धुन्धुकारीके उद्धारका कोई उपाय नहीं दिखायी दिया। तब सब लोगोंने मिलकर यही निश्चय किया कि भगवान् सूर्यनारायण उसकी मुक्तिके लिये जो उपाय बतावें, वही करना चाहिये। यह सुनकर गोकर्णने भगवान् सूर्यकी ओर देखकर कहा- 'भगवन्! आप सारे जगत्के साक्षी हैं। आपको नमस्कार है। आप मुझे धुन्धुकारीकी मुक्तिका साधन बताइये।' यह सुनकर सूर्यदेवने दूरसे ही स्पष्ट वाणीमें कहा- 'श्रीमद्भागवतसे मुक्ति हो सकती है - तुम उसका सप्ताह पारायण करो।' भगवान् सूर्यका यह ध्वनिरूप वचन वहाँ सब लोगोंने सुना और सबने यही कहा – 'यह तो बहुत सरल साधन है। इसको यत्नपूर्वक करना चाहिये। गोकर्णजी भी ऐसा ही निश्चय करके कथा बाँचनेको तैयार हो गये। उस समय वहाँ कथा सुननेके लिये आस-पासके स्थानों और गाँवोंसे लोग एकत्रित होने लगे। अपङ्ग, अंधे, बूढ़े और मन्दभाग्य पुरुष भी अपने पापोंका नाश करनेके लिये वहाँ आ पहुँचे। इस प्रकार वहाँ बहुत बड़ा समाज जुट गया, जो देवताओंको भी आश्चर्यमें डालनेवाला था । जिस समय गोकर्णजी व्यासगद्दीपर बैठकर कथा बाँचने लगे, उस समय वह प्रेत भी वहाँ आया और इधर-उधर बैठनेके लिये स्थान ढूंढ़ने लगा। इतनेमें ही उसकी दृष्टि एक सात गाँठवाले ऊँचे बाँसपर पड़ी। उसीके नीचेवाले छेदमें घुसकर वह कथा सुननेके लिये बैठा। वायुरूप होनेके कारण वह बाहर कहीं बैठ नहीं सकता था । इसलिये बाँसमें ही घुस गया था। 15
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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