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________________ भूमिखण्ड] • गुरुतीर्थक प्रसङ्गमें महर्षि च्यवनकी कथा . ३११ कुञ्जल पक्षी अपनी पत्नीके साथ भोजन करके जब तृप्त क्रोध आदि दोषोंका अभाव है। केश नामक वायु उसका हुआ, तव पुत्रोंके साथ बैठकर परम पवित्र दिव्य कथाएँ स्पर्श नहीं करती। वह निःस्पृह और निश्चल होकर स्वयं कहने लगा। अपने तेजसे प्रकाशमान रहता है। स्वकीय स्थानपर उज्ज्वलने कहा-पिताजी ! इस समय पहले मेरे स्थित रहकर ही अपने तेजसे सम्पूर्ण त्रिलोकीको देखा लिये उत्तम ज्ञानका वर्णन कीजिये; इसके बाद ध्यान, करता है। यह आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप है [इसीको व्रत, पुण्य तथा भगवान्के शत-नामका भी उपदेश परमात्मा कहते है] । इस परमात्माका ही मैंने तुमसे दीजिये। वर्णन किया है। कुञ्जल बोला-बेटा ! मैं तुम्हें उस उत्तम अब मैं चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानका ज्ञानका उपदेश देता हूँ, जिसे किसीने इन चर्मचक्षुओंसे वर्णन आरम्भ करता हूँ। वह ध्यान दो प्रकारका नहीं देखा है; उसका नाम है-कैवल्य (मोक्ष) । वह है-निराकार और साकार । निराकारका ध्यान केवल केवल-अद्वितीय और दुःखसे रहित है। जैसे ज्ञानरूपसे होता है, ज्ञाननेत्रसे उनका दर्शन किया जाता वायुशून्य प्रदेशमें रखा हुआ दीपक हवाका झोंका न है। योगयुक्त महात्मा तथा परमार्थपरायण संन्यासी उन लगनेके कारण स्थिर भावसे जलता है और घरके समूचे सर्वज्ञ एवं सर्वद्रष्टा परमेश्वरका साक्षात्कार करते हैं। अन्धकारका नाश करता रहता है, उसी प्रकार कैवल्य- वत्स ! वे हाथ-पैरसे हीन होकर भी सर्वत्र जाते और स्वरूप ज्ञानमय आत्मा सब दोषोंसे रहित और स्थिर है। समस्त चराचर त्रिलोकीको ग्रहण करते है। उनके मुख उसका कोई आधार नहीं है [वही सबका आधार और नाक नहीं है, फिर भी वे खाते और सँघते है। बिना है।* बेटा ! वह आशा-तृष्णासे रहित और निश्चल कानके ही सब कुछ श्रवण करते हैं। वे सबके साक्षी है। आत्मा न किसीका मित्र है न शत्रु । उसमें न शोक और जगत्के स्वामी हैं। रूपहीन होते हुए भी पाँच है, न हर्ष, न लोभ है न मात्सर्य । वह भ्रम, प्रलाप, मोह इन्द्रियोंसे युक्त रूप धारण करते हैं। समस्त लोकोंके तथा सुख-दुःखसे रहित है। जिस समय इन्द्रियाँ सम्पूर्ण प्राण हैं। चराचर जगत्के जीव उनकी पूजा करते हैं। विषयोंमें भोग-बुद्धिका त्याग कर देती हैं, उस समय बिना जिह्नाके ही वे बोलते हैं। उनकी सब बातें [सब प्रकारकी आसक्तियोंसे रहित] केवल आत्मा रह वेदशास्त्रोंके अनुकूल होती है। उनके त्वचा नहीं है, फिर जाता है; उसे कैवल्य-रूपकी प्राप्ति हो जाती है। जैसे भी वे सबके स्पर्शका अनुभव करते हैं। उनका स्वरूप दीपक प्रज्वलित होकर जब प्रकाश फैलाता है, तब सत् और आनन्दमय है; वे विरक्तात्मा हैं। उनका रूप बत्तीके आधारसे वह तेलको सोखता रहता है। फिर उस एक है। वे आश्रयरहित और जरावस्थासे शून्य है। तेलको भी काजलके रूपमे उगल देता है। महामते ! ममता तो उन्हें छू भी नहीं गयी है। वे सर्वव्यापक, दीपक स्वयं ही तेलको खींचता और अपने तेजसे निर्मल सगुण, निर्गुण और निर्मल हैं। वे किसीके वशमें नहीं है बना रहता है। इसी प्रकार देहरूपी वत्तीमें स्थित हुआ तो भी उनका मन सब भक्तोंके अधीन रहता है। वे सब आत्मा कर्मरूपी तेलका शोषण करता रहता है। वह कुछ देनेवाले और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। उनका पूर्णरूपसे विषयोंका काजल बनाकर प्रत्यक्ष दिखा देता है और ध्यान करनेवाला कोई नहीं है। वे सर्वमय और सर्वत्र जपसे निर्मल होकर स्वयं ही प्रकाशित होता है। उसमें व्यापक हैं। . .. • यथा दीपो निवातस्थो निश्चलो वायुवर्जितः । प्रज्वलनाशयेत्सर्वमन्धकार महामते॥ तावदोषविहीनात्मा भवत्येव निराश्रयः । (८६ ॥ ५९-६०) * ध्यानं चैव प्रवक्ष्यामि द्विविधं तस्य चक्रिणः । केवलं ज्ञानरूपेण दृश्यते ज्ञानचक्षुषा ।।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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