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________________ ३१० • अर्जयस्व हवीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण सुकर्माके मुखसे ये उपदेश सुनकर पिप्पलको अपनी सुकर्मा माता-पिताकी सेवामें लग गये। महामते ! करतूतपर बड़ी लज्जा आयी और वे द्विजश्रेष्ठ सुकर्माको पितृतीर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली ये सारी बातें मैंने तुम्हे प्रणाम करके स्वर्गको चले गये। तत्पश्चात् धर्मात्मा बता दी; बोलो अब और किस विषयका वर्णन कसै? गुरुतीर्थके प्रसङ्गमें महर्षि च्यवनकी कथा-कुञ्जल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश वेनने कहा-भगवन् ! देवदेवेश्वर ! आपने देनेवाली है।' ऐसा निश्चय करके वे पिता आदिको तथा मुझपर कृपा करके भार्यातीर्थ, परम उत्तम पितृतीर्थ एवं पली, पुत्र और धनको भी घरपर ही छोड़कर तीर्थयात्राके परम पुण्यदायक मातृतीर्थका वर्णन किया। हृषीकेश! प्रसङ्गसे भूतलपर विचरने लगे। मुनीश्वर च्यवनने नर्मदा, अब प्रसन्न होकर मुझे गुरुतीर्थकी महिमा बतलाइये। सरस्वती तथा गोदावरी आदि समस्त नदियों और भगवान् श्रीविष्णु बोले-राजन् ! गुरुतीर्थ समुद्रके तटोंकी यात्रा की। अन्यान्य क्षेत्रों, सम्पूर्ण तीर्थों बड़ा उत्तम तीर्थ है, मैं उसका वर्णन करता हूँ। गुरुके तथा पुण्यमय देवताओंके स्थानोंमें भ्रमण किया। इस अनुग्रहसे शिष्यको लौकिक आचार-व्यवहारका ज्ञान प्रकार यात्रा करते हुए वे ओंकारेश्वर तीर्थमें आये और होता है, विज्ञानकी प्राप्ति होती है और वह मोक्ष प्राप्त कर एक बरगदकी शीतल छायामें बैठकर सुखपूर्वक विश्राम लेता है। जैसे सूर्य सम्पूर्ण लोकोंको प्रकाशित करते हैं, करने लगे। उस वृक्षकी छाया ठंडी और थकावटको दूर उसी प्रकार गुरु शिष्योंको उत्तम बुद्धि देकर उनके करनेवाली थी। मुनिश्रेष्ठ च्यवन वहाँ लेट गये। अन्तर्जगत्को प्रकाशपूर्ण बनाते हैं* । सूर्य दिनमें प्रकाश लेटे-लेटे ही उनके कानोंमें पक्षियोंका मनोहर शब्द करते हैं, चन्द्रमा रातमें प्रकाशित होते हैं और दीपक सुनायी पड़ा, जो ज्ञान-विज्ञानसे युक्त था। उस वृक्षके केवल घरके भीतर उजाला करता है; परन्तु गुरु अपने ऊपर अपनी पत्नीके साथ एक दीर्घजीवी तोता रहता था, शिष्यके हृदयमें सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं। वे जो कुचलके नामसे प्रसिद्ध था। वह तोता बड़ा ज्ञानी शिष्यके अज्ञानमय अन्धकारका नाश करते हैं; अतः था। उसके उज्ज्वल, समुज्ज्वल, विज्ज्वल और शिष्योंके लिये गुरु ही सबसे उत्तम तीर्थ हैं। यह कपिञ्जल-ये चार पुत्र थे। चारों ही माता-पिताके बड़े समझकर शिष्यको उचित है कि वह सब तरहसे गुरुको भक्त थे। वे भूखसे आकुल होनेपर चारा चुगनेके लिये प्रसन्न रखे। गुरुको पुण्यमय जानकर मन, वाणी और पर्वतीय कुलों और समस्त द्वीपोंमें भ्रमण किया करते थे। शरीर-तीनोंकी क्रियासे उनकी आराधना करता रहे। उनका चित्त बहुत एकाग्र रहता था। सन्ध्याके समय नृपश्रेष्ठ ! भार्गव-वंशमें उत्पन्न महर्षि च्यवन मुनिवर च्यवनके देखते-देखते वे चारों तोते अपने मुनियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन उनके मनमें यह विचार हुआ पिताके सुन्दर घोसलेमें आये। वहाँ आकर उन सबने कि 'मैं इस पृथ्वीपर कब ज्ञानसम्पन्न होऊँगा।' इस माता-पिताको प्रणाम किया और उन्हें चारा निवेदन प्रकार सोचते-सोचते उनके मनमें यह बात आयी कि 'मैं करके उनके सामने खड़े हो गये। तत्पश्चात् अपने तीर्थयात्राको चलें, क्योंकि तीर्थयात्रा अभीष्ट फलको पंखोंकी शीतल हवासे माता-पिताकी सेवा करने लगे। ये विप्रभक्तिं कुर्वन्ति मानवा भुवि संस्थिताः । अप्रस्थस्तदहं जाने अधिस्वर्गे प्रवर्तते ॥ एतयोश्च प्रसादेन ज्ञानं मम प्रदृश्यताम् । गच्छ विद्याधरश्रेष्ठ भवानचंतु माधवम् ॥(८४ १४-१८) * सर्वेषामेव लोक्यना यथा सूर्यः प्रकाशकः । गुरुः प्रकाशकस्तद्वच्छियाणां बुद्धिदानतः ॥ (८५। ८)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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