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________________ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण बहुत ऊँचे हो गये थे [यहाँतक कि उन्होंने सूर्यका मार्ग परम सत्यका आश्रय लेकर अपने प्राणोंका भी त्याग कर भी रोक लिया था], किन्तु सत्यमें बँध जानेके कारण ही रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। कल्याणी ! वे [महर्षि अगस्त्यके साथ किये गये] अपने नियमको इस विषयमें हमलोग क्या कह सकती हैं। तुम तो नहीं तोड़ते। स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म-सब सत्यमें ही धर्मका बीड़ा उठा रही हो। इस सत्यके प्रभावसे प्रतिष्ठित हैं; जो अपने वचनका लोप करता है, उसने त्रिभुवनमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् मानो सबका लोप कर दिया। सत्य अगाध जलसे भरा त्यागसे हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्रके हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थमें स्नान करता साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारीका चित्त है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता कल्याणमार्गमें लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण-ये दोनों नहीं आतीं। यदि तराजूपर रखे जाये तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंसे पुलस्त्यजी कहते हैं-तदनन्तर गोपियोंसे सत्यका ही पलड़ा भारी रहेगा। सत्य ही उत्तम तप है, मिलकर तथा समस्त गो-समुदायकी परिक्रमा करके सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सत्यभाषणमें किसी वहाँके देवताओं और वृक्षोंसे विदा ले नन्दा वहाँसे चल प्रकारका क्लेश नहीं है। सत्य ही साधुपुरुषोंकी परखके पड़ी। उसने पृथ्वी, वरुण, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, दसों लिये कसौटी है। वही सत्पुरुषोंकी वंश-परम्परागत दिक्पाल, वनके वृक्ष, आकाशके नक्षत्र तथा ग्रह-इन सम्पत्ति है। सम्पूर्ण आश्रयोंमें सत्यका ही आश्रय श्रेष्ठ सबको बारम्बार प्रणाम करके कहा-'इस वनमें जो माना गया है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका सिद्ध और वनदेवता निवास करते है, वे वनमें चरते हुए पालन करना अपने हाथमें है। सत्य सम्पूर्ण जगत्के मेरे पुत्रकी रक्षा करें।' इस प्रकार पुत्रके नेहवश लिये आभूषणरूप है। जिस सत्यका उच्चारण करके बहुत-सी बातें कहकर नन्दा वहाँसे प्रस्थित हुई और उस म्लेच्छ भी स्वर्गमें पहुँच जाता है, उसका परित्याग कैसे स्थानपर पहुंची, जहाँ वह तीखी दाढ़ों और भयङ्कर किया जा सकता है।* आकृतिवाला मांसभक्षी बाघ मुँह बाये बैठा था। उसके सखियाँ बोलीं-नन्दे ! तुम सम्पूर्ण देवताओं पहुँचनेके साथ ही उसका बछड़ा भी अपनी पूँछ ऊपरको और दैत्योंके द्वारा नमस्कार करनेयोग्य हो; क्योंकि तुम उठाये अत्यन्त वेगसे दौड़ता हुआ वहाँ आ गया और * एकः संश्लिष्यते गर्भे मरणे भरणे तथा । भुङ्क्ते वैकः सुख दुःखमतः सत्यं वदाम्यहम्॥ सत्ये प्रतिष्ठिता लोका धर्मः सत्ये प्रतिष्ठितः । उदधिः सत्यवाक्येन मर्यादा न विलयति ॥ विष्णवे पृथिवीं दत्त्वा बलि पातालमास्थितः । छानापि बलिबद्धः सत्यवाक्येन तिष्ठति ॥ प्रवर्द्धमानः शैलेन्द्रः शतङ्गः समुच्छ्रितः । सत्येन संस्थितो विध्यः प्रबन्ध नातिवर्तते ॥ स्वर्गों मोक्षस्तथा धर्मः सर्वे वाचि प्रतिष्ठिताः । यस्तो लोपयते वाचमशेष तेन लोपितम्। अगाधसलिले शुद्धे सत्यतीर्थे क्षमाहदे । स्नात्वा पापविनिर्मुक्तः प्रयाति परमा गतिम्॥ अश्वमेधसहसं च सत्यं च तुलया धृतम् । अश्वमेधसाहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ सल्यं साधु तपः श्रुतं च परमं केशादिभिर्वर्जितं साधूनां निकयं सतां कुलधन सर्वाश्रयाणां वरम् । खाधीनं च सुदुर्लभं च जगतः साधारणं भूषणं यम्लेच्छोऽप्यभिधाय गच्छति दिवं तस्यज्यते वा कथम् ॥ "120. 00.vae.vavi
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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