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________________ १०४ • अर्जयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण उन जगदीश्वरका दर्शन कर लेनेपर मनुष्योंको बुढ़ापा मर्यादा-पर्वत और यज्ञ-पर्वत कहते हैं। उन दोनोंके और मृत्युका द्वार नहीं देखना पड़ता । उन्हें सभी प्रकारके बीचमें तीन कुण्ड हैं, जिनके नाम क्रमशः ज्येष्ठ पुष्कर, सुख प्राप्त होते हैं तथा उनका तप और ऐश्वर्य भी अक्षय मध्यम पुष्कर और कनिष्ठ पुष्कर हैं। वहाँ जाकर अपने हो जाते हैं। तात ! जिस कार्यको मैं भी न कर सका, पिता दशरथको तुम पिण्डदानसे तृप्त करो। वह तीर्थोमें मेरे किसी कर्मसे जिसकी सिद्धि न हो सकी, उसे तुमने श्रेष्ठ तीर्थ और क्षेत्रोंमें उत्तम क्षेत्र है। रघुनन्दन ! वहाँ बिना यत्रके ही सिद्ध कर लिया। सबके प्राण लेनेवाली अवियोगा नामकी एक चौकोर बावली है तथा एक मृत्युको भी जीत लिया। अतः दूसरा कोई मनुष्य इस दूसरा जलसे युक्त कुआँ है, जिसे सौभाग्य-कूप कहते पृथ्वीपर तुम्हारी समानता नहीं कर सकता। पाँच वर्षकी हैं। वहाँपर पिण्डदान करनेसे पितरोंकी मुक्ति हो जाती अवस्थामें ही तुमने मुझे पूर्ण सन्तुष्ट कर दिया; अतः मेरे है। वह तीर्थ प्रलयपर्यन्त रहता है, ऐसा पितामहका वरदानके प्रभावसे तुम चिरजीवी महात्माओंके आदर्श कथन है। माने जाओगे, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मेरा तो पुलस्त्यजी कहते हैं-'बहुत अच्छा !' कहकर ऐसा आशीर्वाद है ही, तुम्हारे लिये और सब लोग भी श्रीरामचन्द्रजीने पुष्कर जानेका विचार किया। वे यही कहते है कि 'तुम अपनी इच्छाके अनुसार उत्तम ऋक्षवान् पर्वत, विदिशा नगरी तथा चर्मण्वती नदीको लोकोंमें जाओगे।' पार करके यज्ञपर्वतके पास जा पहुंचे। फिर बड़े वेगसे पुलस्त्यजी कहते हैं-इस प्रकार ऋषियों और उस पर्वतको भी पार करके वे मध्यम पुष्कर गये। वहाँ गुरुजनोंका अनुग्रह प्राप्त करके मृकण्डुनन्दन स्नान करके उन्होंने मध्यम पुष्करके ही जलसे समस्त मार्कण्डेयजीने पुष्कर तीर्थमें जाकर एक आश्रम स्थापित देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसी समय किया, जो मार्कण्डेय-आश्रमके नामसे प्रसिद्ध है। वहाँ मुनिश्रेष्ठ मार्कण्डेयजी अपने शिष्योंके साथ वहाँ आये। स्नान करके पवित्र हो मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल प्राप्त श्रीरामचन्द्रजीने जब उन्हें देखा तो सामने जाकर प्रणाम करता है। उसका अन्तःकरण सब पापोंसे मुक्त हो जाता किया और बड़े आदरके साथ कहा-'मुने! मैं राजा है तथा उसे दीर्घ आयु प्राप्त होती है। अब मैं दूसरे दशरथका पुत्र हूँ, मुझे लोग राम कहते हैं। मैं महर्षि प्राचीन इतिहासका वर्णन करता हूँ। श्रीरामचन्द्रजीने अत्रिकी आज्ञासे अवियोगा नामकी बावलीका दर्शन जिस प्रकार पुष्कर तीर्थका निर्माण किया, वह प्रसङ्ग करनेके लिये यहाँ आया हूँ। विप्रवर ! बताइये, वह आरम्भ करता हूँ। पूर्वकालमें श्रीरामचन्द्रजी जब सीता स्थान कहाँ है?' और लक्ष्मणके साथ चित्रकूटसे चलकर महर्षि अत्रिके मार्कण्डेयजीने कहा-रघुनन्दन ! इसके लिये आश्रमपर पहुँचे, तब वहाँ उन्होंने मुनिश्रेष्ठ अत्रिसे मैं आपको साधुवाद देता हूँ, आपका कल्याण हो। पूछा-'महामुने ! इस पृथ्वीपर कौन-कौन-से पुण्यमय आपने यह बड़े पुण्यका कार्य किया कि तीर्थ-यात्राके तीर्थ अथवा कौन-सा ऐसा क्षेत्र है, जहाँ जाकर प्रसङ्गसे यहाँतक चले आये। यहाँसे अब आप आगे मनुष्यको अपने बन्धुओंके वियोगका दुःख नहीं उठाना चलिये और 'अवियोगा' नामकी बावलीका दर्शन पड़ता? भगवन् ! यदि ऐसा कोई स्थान हो तो वह मुझे कीजिये। वहाँ सबका सभी आत्मीयजनोंके साथ संयोग बताइये।' होता है। इहलोक या परलोकमें स्थित, जीवित या अत्रि बोले-रघुवंशका विस्तार करनेवाले वत्स मृत-सभी प्रकारके बन्धुओंसे भेट होती है। श्रीराम ! तुमने बड़ा उत्तम प्रश्न किया है। मेरे पिता मुनीश्वर मार्कण्डेयजीके ये वचन सुनकर ब्रह्माजीके द्वारा निर्मित एक उत्तम तीर्थ है, जो पुष्कर श्रीरामचन्द्रजीने महाराज दशरथ, भरत, शत्रुघ्न, माताओं नामसे विख्यात है। वहाँ दो प्रसिद्ध पर्वत हैं, जिन्हें तथा अन्य पुरवासीजनोंका स्मरण किया। इस प्रकार
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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