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________________ ४९६ ....... • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् ... ....... [संक्षिप्त पद्मपुराण उन्हें आया देख समस्त वैरी भी साधु-साधु कहकर शत्रुनको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने राजाके ऊपर उनकी प्रशंसा करने लगे तथा सबने उन्हें एक अद्भुत आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे उनकी सेना दग्ध होने शक्तिशाली वीर माना। हनुमान्जी बड़ी प्रसन्नताके साथ लगी। शत्रुके छोड़े हुए उस महान् दाहक अस्त्रको मरे हुए वीर पुष्कलके पास आये और महापुरुषोंके भी देखकर राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने आदरणीय मन्त्रिवर सुमतिको बुलाकर बोले-'आज मैं वारुणास्त्रका प्रयोग किया। वारुणाखद्वारा अपनी सेनाको युद्धमें मरे हुए सम्पूर्ण वीरोंको जिलाऊँगा।' शीतके कष्टसे पीड़ित देख महाबली शत्रुघ्नने उसपर ऐसा कहकर उन्होंने पुष्कलके विशाल वक्षःस्थल- वायव्यास्त्रका प्रहार किया। इससे बड़े जोरोंकी हवा पर औषध रखा और उनके सिरको धड़से जोड़कर यह चलने लगी। वायुके वेगसे मेघोंकी घिरी हुई घटा कल्याणमय वचन कहा–'यदि मैं मन, वाणी और छिन्न-भिन्न हो गयी। वे चारों ओर फैलकर विलीन हो क्रियाके द्वारा श्रीरघुनाथजीको ही अपना स्वामी समझता गये। अब शत्रुघ्नके सैनिक सुखी दिखायी देने लगे। हूँ तो इस दवासे पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जायें।' इस उधर महाराज वीरमणिने जब देखा कि मेरी सेना आँधीसे बातको ज्यों ही उन्होंने मुँहसे निकाला त्यों ही कष्ट पा रही है, तब उन्होंने अपने धनुषपर शत्रुओंका वीरशिरोमणि पुष्कल उठकर खड़े हो गये और रणभूमिमें संहार करनेवाले पर्वताखका प्रयोग किया । पर्वतोंके द्वारा रोषके मारे दाँत कटकटाने लगे। वे बोले-'मुझे युद्धमें वायुकी गति रुक गयी। अब वह युद्धक्षेत्रमें फैल नहीं मूर्च्छित करके वीरभद्र कहाँ चले गये? मैं अभी उन्हें पाती थी। यह देख शत्रुघ्नने वज्रास्त्रका सन्धान किया। मार गिराता हूँ। कहाँ है मेरा उत्तम धनुष !' उन्हें ऐसा वज्रास्त्रकी मार पड़नेपर समस्त पर्वत तिल-तिल करके कहते देख कपिराज हनुमानजीने कहा-'वीरवर ! तुम्हें चूर्ण हो गये। शत्रुवीरोंके अङ्ग विदीर्ण होने लगे। खूनसे वीरभद्रने मार डाला था। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे पुनः लथपथ होनेके कारण उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। नया जीवन प्राप्त हुआ है। शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये हैं। उस समय युद्धका अद्भुत दृश्य था। राजा वीरमणिका चलो, उनके पास चलें।' यों कहकर वे युद्धके मुहानेपर क्रोध सीमाको पार कर गया। उन्होंने अपने धनुषपर पहुँचे, जहाँ भगवान् श्रीशिवके बाणोंसे पीड़ित होकर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया, जो वैरियोंको दग्ध करनेवाला शत्रुघ्नजी केवल साँस ले रहे थे। साँस आनेपर अद्भुत अस्त्र था। ब्रह्मास्त्र उनके हाथसे छूटकर शत्रुकी हनुमान्जीने उनकी छातीपर दवा रख दी और कहा- ओर चला। तबतक शत्रुघ्नने भी मोहनास्त्र छोड़ा। 'भैया शत्रुघ्न ! तुम तो महाबलवान् और पराक्रमी हो, मोहनास्त्रने एक ही क्षणमें ब्रह्मास्त्रके दो टुकड़े कर डाले रणभूमिमें मूर्छित होकर कैसे पड़े हो? यदि मैंने तथा राजाकी छातीमें चोट करके उन्हें तुरंत मूर्च्छित कर प्रयत्नपूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन किया है तो दिया। तब शिवजीको बड़ा क्रोध हुआ और वे रथपर वीर शत्रुघ्न क्षणभरमें जीवित हो उठे।' इतना कहते ही बैठकर राजाके पास आये। उस समय शत्रुघ्न सहसा वे क्षणमात्रमें जीवित हो बोल उठे-'शिव कहाँ हैं, उनसे युद्धके लिये आगे बढ़ आये और अपने धनुषपर शिव कहाँ है? वे रणभूमि छोड़कर कहाँ चले गये?' प्रत्यञ्चा चढ़ाकर युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें बड़ा . पिनाकधारी रुद्रने युद्धमें अनेकों वीरोंका सफाया भयङ्कर संग्राम छिड़ा, जो वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला कर डाला था, किन्तु महात्मा हनुमानजीने उन सबको था। नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होनेके कारण जीवित कर दिया। तब वे सभी वीर कवच आदिसे सारी दिशाएँ उद्दीप्त हो उठी थीं। शिवके साथ युद्ध सुसज्जित हो अपने-अपने रथपर बैठकर रोषपूर्ण हृदयसे करते-करते शत्रुघ्न अत्यन्त व्याकुल हो गये। तब शत्रुओंकी ओर चले। अबकी बार राजा वीरमणि स्वयं हनुमानजीके उपदेशसे उन्होंने अपने स्वामी ही शत्रुघ्नका सामना करनेके लिये गये। उन्हें देखकर श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया-'हा नाथ ! हा भाई ! ये
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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