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________________ ५५६ · अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् • हो चुका है, तो उनकी परम प्रियतमा भगवती भी अवश्य अवतीर्ण हुई होंगी। वे भगवान्‌की क्रीड़ाके लिये गोपी रूप धारण करके निश्चय ही प्रकट हुई होंगी, इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है; इसलिये अब मैं व्रजवासियोंके घर-घरमें घूमकर उनका पता लगाऊँगा।' ऐसा विचारकर मुनिवर नारदजी व्रजवासियोंके घरोंमें अतिथिरूपसे जाने और उनके द्वारा विष्णु-बुद्धिसे पूजित होने लगे। नन्द कुमार श्रीकृष्णमें समस्त गोप गोपियोंका प्रगाढ़ प्रेम देखकर नारदजीने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। तदनन्तर, बुद्धिमान् नारदजी किसी श्रेष्ठ गोपके विशाल भवनमें गये । वह नन्दके सखा महात्मा भानुका घर था। वहाँ जानेपर भानुने नारदजीका विधिवत् सत्कार किया। तत्पश्चात् महामना नारदजीने पूछा—'साधो ! तुम अपनी धर्मनिष्ठताके लिये इस भूमण्डलपर विख्यात हो, बताओ, क्या तुम्हें कोई योग्य पुत्र अथवा उत्तम लक्षणोंवाली कन्या है ?' मुनिके ऐसा कहनेपर भानुने अपने पुत्रको लाकर दिखाया। उसे देखकर नारदजीने कहा - 'तुम्हारा यह पुत्र बलराम और श्रीकृष्णका [ संक्षिप्त पद्मपुराण -------------- श्रेष्ठ सखा होगा तथा आलस्यरहित होकर सदा उन दोनोंके साथ विहार करेगा।' भानुने कहा- मुनिवर ! मेरे एक पुत्री भी है, जो इस बालककी छोटी बहिन है, कृपया उसपर भी दृष्टिपात कीजिये। यह सुनकर नारदजीके मनमें बड़ा कौतूहल हुआ । उन्होंने घरके भीतर प्रवेश करके देखा, भानुकी कन्या धरतीपर लोट रही है। नारदजीने उसे अपनी गोद में उठा लिया। उस समय उनका चित्त अत्यधिक स्नेहके कारण विह्वल हो रहा था। महामुनि नारद भगवत्प्रेमके साक्षात् स्वरूप हैं। बालरूप श्रीकृष्णको देखकर उनकी जो अवस्था हुई थी, वही इस कन्याको भी देखकर हुई। उनका मन मुग्ध हो गया। वे एकमात्र रसके आश्रयभूत परमानन्दके समुद्रमें डूब गये। चार घड़ीतक नारदजी पत्थरकी भाँति निश्चेष्ट बैठे रहे। उसके बाद उन्हें चेत हुआ। फिर मुनीश्वरने धीरे-धीरे अपने दोनों नेत्र खोले और महान् आश्चर्यमें मन होकर वे चुपचाप स्थित हो गये। तत्पश्चात् वे महाबुद्धिमान् महर्षि मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगे- 'मैं सदा स्वच्छन्द विचरनेवाला हूँ, मैंने सभी लोकोंमें भ्रमण किया है, परन्तु रूपमें इस बालिकाकी समानता करनेवाली स्त्री कहीं नहीं देखी है। महामायास्वरूपिणी गिरिराज कुमारी भगवती उमाको भी देखा है, किन्तु वे भी इस बालिकाकी शोभाको कदापि नहीं पा सकतीं। लक्ष्मी, सरस्वती, कान्ति तथा विद्या आदि सुन्दरी स्त्रियाँ तो कभी इसके सौन्दर्यकी छायाका भी स्पर्श करती नहीं दिखायी देतीं; अतः मुझमें इसके तत्त्वको समझनेकी किसी प्रकार शक्ति नहीं है। यह भगवान्की प्रियतमा है, इसे प्रायः दूसरे लोग भी नहीं जानते। इसके दर्शनमात्रसे ही श्रीकृष्णके चरण-कमलोंमें मेरे प्रेमकी जैसी वृद्धि हुई है, वैसी आजके पहले कभी भी नहीं हुई थी; अतः अब मैं एकान्तमें इस देवीकी स्तुति करूंगा। इसका रूप श्रीकृष्णको अत्यन्त आनन्द प्रदान करनेवाला होगा।' ऐसा विचारकर मुनिने गोप- प्रवर भानुको कहीं भेज दिया और स्वयं एकान्तमें उस दिव्य रूपधारिणी
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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