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________________ भूमिखण्ड] • सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसङ्गमें सुमना और शिवशर्माका संवाद . २२७ वाणी प्रसाद-गुणसे युक्त है, जो दीप्तिमान् दिखायी देते हैं, गौरवर्णा है। इधर यह मेधा उपस्थित है, जिसके शरीरका सम्पूर्ण जीवोंपर दया करना जिनका स्वभाव है तथा जो रंग हंस और चन्द्रमाके समान श्वेत है, गलेमें मोतियोंका सर्वदा आपका पोषण करते हैं, वे ही 'दम' (इन्द्रिय- हार लटक रहा है और हाथमें पुस्तक तथा स्फटिकाक्षकी संयम) यहाँ व्यक्तरूप धारण करके उपस्थित हैं। जिनके माला शोभा पा रही है। यह प्रज्ञा है, जो सदा ही अत्यन्त मस्तकपर जटा है, जिनका स्वभाव कुछ कठोर जान प्रसत्र रहा करती है; यह प्रज्ञादेवी पीत वस्त्रसे शोभा पा पड़ता है, जिनके शरीरका रंग कुछ पीला है, जो अत्यन्त रही है। द्विजश्रेष्ठ ! जो त्रिभुवनका उपकार और पोषण तीव्र और महान् सामर्थ्यशाली प्रतीत होते हैं तथा जिन्होंने करनेमें अद्वितीय है, जिसके शीलकी सदा ही प्रशंसा श्रेष्ठ ब्राह्मणका रूप धारण कर हाथमें तलवार ले रखी है, होती रहती है, वह दया भी आपके पास आयी है। यह वे पापोंका नाश करनेवाले 'नियम' हैं। जो अत्यन्त श्वेत वृद्धा, परम विदुषी, तपस्विनी, भावकी भार्या और मेरी और महान् दीप्तिमान् हैं, जिनके शरीरका रंग शुद्ध माता है। सुव्रत ! मैं आपका मूर्तिमान् धर्म हूँ। ऐसा स्फटिक मणिके समान जान पड़ता है, जिनके हाथमें समझकर शान्त होइये। मेरी रक्षा कीजिये। विप्रवर ! जलसे भरा कमण्डलु है तथा जिन्होंने दाँतन ले रखी है, आप कुपित क्यों हो रहे हैं? वे शौच' ही यहाँ ब्राह्मणका रूप धारण करके आये हैं। दुर्वासाने कहा-देव ! जिससे मुझे क्रोध हुआ __ स्त्रियोंमें यह शुश्रूषा है, जो सत्यसे विभूषित, परम है, वह कारण सुनिये । मैंने इन्द्रियसंयम और शौच आदि सौभाग्यवती और अत्यन्त साध्वी है। जिसका स्वभाव केशमय साधनोंद्वारा अपने शरीरका शोधन किया तथा अत्यन्त धीर है, जिसके सारे अङ्गोंसे प्रसन्नता टपक रही तपस्या की; किन्तु ऐसा करनेपर भी देख रहा हूँ-केवल है, जिसका रंग गोरा और मुखपर हास्यकी छटा छा रही मेरे ही ऊपर आपकी दया नहीं हो रही है। धर्मराज ! मैं है, वह कमललोचना सरस्वती है। द्विजश्रेष्ठ ! यह दिव्य आपके इस बर्तावको न्याययुक्त नहीं मानता। यही मेरे आभूषणोंसे युक्त क्षमा उपस्थित है, जो परम शान्त, क्रोधका कारण है, दूसरा कुछ नहीं; इसलिये मैं आपको सुस्थिर और अनेकों मङ्गलमय विधानोंसे सुशोभित है। तीन शाप दूंगा। महाप्राज्ञ! तुम्हारी ज्ञानस्वरूपा शान्ति भी दिव्य 'धर्म ! अब आप राजा और दासीपुत्र होइये । साथ आभूषणोंसे विभूषित होकर यहाँ आयी है। यह तुम्हारी ही स्वेच्छानुसार चाण्डाल-योनिमें भी प्रवेश कीजिये।' प्रज्ञा है, जो परोपकारमें संलग्र, सत्यपरायण तथा स्वल्प इस प्रकार तीन शाप देकर द्विजश्रेष्ठ दुर्वासा चले गये।। भाषण करनेवाली है। यह क्षमाके साथ बड़ी प्रसन्न सोमशर्माने पूछा-भामिनि ! महात्मा दुर्वासाका रहती है। इस यशस्विनीके शरीरका वर्ण श्याम है। शाप पाकर धर्मकी क्या अवस्था हुई? उन शापोंका जिसका शरीर तपाये हुए सोनेके समान उद्दीप्त दिखायी दे उपभोग उन्होंने किस प्रकार किया? यदि जानती हो रहा है, वह महाभागा अहिंसा है। यह अत्यन्त प्रसन्न तो बताओ। और अच्छी मन्त्रणासे युक्त है। यह यत्र-तत्र दृष्टि नहीं सुमना बोली-प्राणनाथ ! धर्मने भरतवंशमें डालती। ज्ञानभावसे आक्रान्त हो सदा तपस्यामें लगी राजा युधिष्ठिरके रूपमें जन्म ग्रहण किया। दासीपुत्र रहती है। महाभाग ! यह देखिये-आपकी श्रद्धा भी होकर जब वे उत्पन्न हुए, तब विदुर नामसे उनकी आयी है, जो नाना प्रकारकी बुद्धिसे आक्रान्त और प्रसिद्धि हुई। अब तीसरे शापका उपभोग बतलाती अनेकों ज्ञानोंसे आकुल होनेपर भी सुस्थिर है। यह श्रद्धा हूँ-जिस समय महर्षि विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रको मनोहर और मङ्गलमयी है। सबका शुभ चिन्तन बहुत कष्ट पहुँचाया, उस समय परम बुद्धिमान् धर्म करनेवाली, सम्पूर्ण जगत्की माता, यशस्विनी तथा चाण्डालके स्वरूपको प्राप्त हुए थे।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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