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________________ २२६ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण सुमनाने कहा-प्राणनाथ ! पुरुष या स्त्रीको सदा विद्वान् ब्राह्मणके रूपमें आये। नियमने महाप्राज्ञ जिस प्रकार बर्ताव करना चाहिये तथा जिस प्रकार पुण्य पण्डितका रूप धारण कर रखा था और दान अग्निकरनेसे कीर्ति, पुत्र, प्यारी स्त्री और धनकी प्राप्ति होती है, होत्रीका स्वरूप धारण किये महर्षि दुर्वासाके निकट वह सब मैं बताती हूँ तथा पुण्यका लक्षण भी कहती हूँ। उपस्थित हुआ था। क्षमा, शान्ति, लज्जा, अहिंसा और ब्रह्मचर्य, तपस्या, पञ्चयज्ञोंका अनुष्ठान, दान, नियम, अकल्पना (निःसंकल्प अवस्था)-ये सब स्त्री रूप क्षमा, शौच, अहिंसा, उत्तम शक्ति और चोरीका धारण किये वहाँ आयी थीं। बुद्धि, प्रज्ञा, दया, श्रद्धा, अभाव-ये पुण्यके अङ्ग हैं; इनके अनुष्ठानसे धर्मकी मेधा, सत्कृति और शान्ति–इनका भी वही रूप था। पूर्ति करनी चाहिये।* धर्मात्मा पुरुष मन, वाणी और पाँचों अग्नियाँ, परम पावन वेद और वेदाङ्ग-ये भी शरीर-तीनोंकी क्रियासे धर्मका सम्पादन करता है। अपना-अपना दिव्य रूप धारण किये उपस्थित थे। इस फिर वह जिस-जिस वस्तुका चिन्तन करता है, वह दुर्लभ प्रकार धर्म अपने परिवारके साथ वहाँ आये थे। ये होनेपर भी उसे प्राप्त हो जाती है। सब-के-सब मुनिको सिद्ध हो गये थे। सोमशर्माने पूछा-भामिनि ! धर्मका स्वरूप धर्म बोले-ब्रह्मन् ! आपने तपस्वी होकर भी कैसा है? और उसके कौन-कौन-से अङ्ग है? प्रिये! क्रोध क्यों किया है? क्रोध तो मनुष्यके श्रेय और इस विषयको सुननेकी मेरे मनमें बड़ी रुचि हो रही है; तपस्या-दोनोंका ही नाश कर डालता है; इसलिये अतः तुम प्रसन्नतापूर्वक इसका वर्णन करो। तपस्याके समय इस सर्वनाशी क्रोधको अवश्य त्याग सुमना बोली-ब्रह्मन् ! जिनका अत्रिवंशमें जन्म देना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! स्वस्थ होइये; आपकी हुआ है तथा जो अनसूयाके पुत्र हैं, उन भगवान् तपस्याका फल बहुत उत्तम है। दत्तात्रेयजीने ही सदा धर्मका साक्षात्कार किया है। महर्षि दुर्वासाने कहा-आप कौन हैं, जो इन श्रेष्ठ दुर्वासा और दत्तात्रेय-इन दोनोंने उत्तम तपस्या की है। ब्राह्मणोंके साथ यहाँ पधारे हैं? तथा आपके साथ ये उन्होंने तपस्या और आत्मबलके साथ धर्मानुकूल बर्ताव सुन्दर रूप और अलंकारोंसे सुशोभित स्त्रियाँ कैसे किया है। उन्होंने वनमें रहकर दस हजार वर्षांतक तपस्या खड़ी हैं? की, बिना कुछ खाये-पीये केवल हवा पीकर जीवन- धर्म बोले-मुने! ये जो आपके सामने निर्वाह किया; इससे वे दोनों शुभदशी हो गये हैं। ब्राह्मणके रूपमें सम्पूर्ण तेजसे युक्त दिखायी देते है, जो तत्पश्चात् उतने ही समय (दस हजार वर्ष) तक उन हाथमें दण्ड और कमण्डलु लिये अत्यन्त प्रसन्न जान दोनोंने पञ्चाग्निसेवन किया। उसके बाद वे जलके भीतर पड़ते हैं; इनका नाम 'ब्रह्मचर्य' है। इसी प्रकार ये जो खड़े हो उतने ही वर्षांतक तपस्यामें लगे रहे। यतिवर दूसरे तेजस्वी ब्राह्मण खड़े हैं, इनपर भी दृष्टिपात दत्तात्रेय और मुनिश्रेष्ठ दुर्वासा बहुत दुर्बल हो गये। तब कीजिये। इनके शरीरका रङ्ग पीला और आँखें भूरे रंगकी मुनिवर दुर्वासाके मनमें धर्मके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। हैं; ये 'सत्य' कहलाते हैं। धर्मात्मन् ! इन्हींक समान जो इसी समय बुद्धिमान् धर्म साक्षात् वहाँ आ पहुंचे। उनके अपनी दिव्य प्रभासे विश्वेदेवोंकी समानता कर रहे हैं साथ ब्रह्मचर्य और तप आदि भी मूर्तिमान् होकर आये। तथा जिनका आपने सदा ही आश्रय लिया है, वही ये सत्य, ब्रह्मचर्य, तप और इन्द्रियसंयम-ये उत्तम एवं आपके मूर्तिमान् 'तप' हैं; इनका दर्शन कीजिये। जिनकी * ब्रह्मचर्येण तपसा मखपज्ञकवर्तनः । दानेन नियमैश्वापि क्षमाशीचेन वल्लभ ॥ अहिंसया सुशक्त्या च हस्तेयेनापि वर्तनः । एतैर्दशभिरङ्गैस्तु धर्ममेव प्रपूरयेत् ॥ (१२।४४-४५)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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