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________________ उत्तरखण्ड . भक्तिका कष्ट दूर करने के लिये नारदजीका उद्योग . ८४९ पैदा करने में ही दक्ष हैं। मुक्तिके साधनमें वे नितान्त सौभाम्यसे ही आपका यहाँ शुभागमन हुआ है। संसारमें असमर्थ पाये जाते हैं। परम्परासे प्राप्त हुआ वैष्णव-धर्म साधु-महात्माओका दर्शन सब प्रकारके कार्योको सिद्ध कहीं भी नहीं रह गया है। इस प्रकार जगह-जगह सभी करनेवाला और सर्वश्रेष्ठ साधन है। अब जिस प्रकार वस्तुओंका सार लुप्त हो गया है। यह तो इस युगका मुझे सुख मिले-मेरा दुःख दूर हो जाय, वह उपाय स्वभाव ही है, इसमें दोष किसीका नहीं है; यही कारण बताइये । ब्रह्मन् ! आप समस्त योगोंके स्वामी हैं, आपके है कि कमलनयन भगवान् विष्णु निकट रहकर भी यह लिये इस समय कुछ भी असाध्य नहीं है। एकमात्र सब कुछ सहन करते हैं। आपके ही सुन्दर उपदेशको सुनकर कयाधू-नन्दन शौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारदके वचन प्रह्लादने संसारकी मायाका त्याग किया था तथा राजकुमार सुनकर भक्तिको बड़ा आश्चर्य हुआ। फिर उसने जो कुछ घुव भी आपकी ही कृपासे ध्रुवपदको प्राप्त हुए थे। आप कहा, उसे आप सुनिये। सब प्रकारसे मङ्गलभाजन एवं श्रीब्रह्माजीके पुत्र है; मैं - भक्ति बोली-देवर्षे ! आप धन्य हैं। मेरे आपको प्रणाम करती हूँ। भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति नारदजीने कहा-बाले ! तुम व्यर्थ ही अपनेको ही भक्तोंका पोषण करती हो। भूलोकमें उनका पोषण खेदमें डालती हो। अहो । इतनी चिन्तातुर क्यों हो रही करनेके लिये तुमने केवल छायारूप धारण कर रखा है। हो? भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलोंका स्मरण करो। मुक्ति अपने साथ ज्ञान और वैराग्यको लेकर इससे तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा। जिन्होंने तुम्हारी सेवाके लिये इस पृथ्वीपर आयो तथा सत्ययुगके कौरवोंके अत्याचारसे द्रौपदीकी रक्षा की तथा आरम्भसे द्वापरके अन्ततक यहाँ बड़े आनन्दसे रही; गोपसुन्दरियोंका मनोरथ पूर्ण किया, वे श्रीकृष्ण कहीं परन्तु कलियुग आनेपर वह पाखण्डरूप रोगसे पीड़ित चले नहीं गये है। तुम तो साक्षात् भक्ति हो, जो उन्हें होकर क्षीण होने लगी। तब तुम्हारी आज्ञासे वह तुरंत प्राणोंसे भी अधिक प्रिय है। तुम्हारे बुलानेपर तो भगवान् ही फिर वैकुण्ठलोकको चली गयी। अब भी वह तुम्हारे नीच पुरुषोंके घरोंमें भी चले जाते हैं। सत्ययुग, त्रेता स्मरण करनेपर इस लोकमें आती है और फिर चली और द्वापर-इन तीन युगोंमें ज्ञान और वैराग्य मुक्तिके जाती है। इन ज्ञान और वैराग्यको तुमने पुत्र मानकर साधन थे; किन्तु कलियुगमें तो केवल भक्ति ही ब्रह्म- अपने ही पास रख छोड़ा था। कलियुगमें मनुष्योंद्वारा सायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति करानेवाली है। ऐसा सोचकर इनकी उपेक्षा होनेके कारण ये तुम्हारे पुत्र उत्साहहीन और ही ज्ञानस्वरूप श्रीहरिने तुम्हें प्रकट किया है। तुम वृद्ध हो गये हैं। फिर भी तुम चिन्ता न करो। मैं इनके भगवत्स्वरूपा, परमानन्दचिन्मूर्ति, परम सुन्दरी तथा उद्धारका उपाय सोचता हूँ। सुमुखि ! कलियुगके समान साक्षात् श्रीकृष्णकी प्रियतमा हो। एक बार जब तुमने कोई युग नहीं है। इस युगमें मैं तुम्हें घर-घरमें और हाथ जोड़कर पूछा था कि 'मैं क्या करूँ ?' उस समय मनुष्य-मनुष्यके भीतर स्थापित कर दूंगा। अन्य जितने भगवान् श्रीकृष्णने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि 'मेरे भी धर्म हैं, उन सबको दबाकर और बड़े-बड़े उत्सव भक्तोंका पोषण करो। तुमने भगवान्को यह आज्ञा रचाकर यदि संसारमें मैं तुम्हारा प्रचार न कर दूं तो मैं स्वीकार कर ली। इससे प्रसन्न होकर श्रीहरिने तुम्हें श्रीहरिका दास ही नहीं। इस कलियुगमें जो जीव तुमसे मुक्तिको दासीरूपमें दिया और इन ज्ञान-वैराग्यको सम्बन्ध रखेंगे, वे पापी होनेपर भी निर्भयतापूर्वक पुत्ररूपमें । तुम अपने साक्षात् स्वरूपसे तो वैकुण्ठधाममें भगवान् श्रीकृष्णके नित्य घामको चले जायेंगे। जिनके
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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