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________________ स्वर्गखण्ड ] . धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोका वर्णन . ३५५ है तथा वे श्रीविष्णुके परमपदको प्राप्त होते हैं।* छन्द और देवतासहित द्वादशाक्षर मन्त्रकी दीक्षा लेकर दुराचारी, पापी अथवा सदाचारी-कैसा भी क्यों न हो, उसका विधिवत् जप करना चाहिये। जो श्रेष्ठ मानव जो मनुष्य भगवान् विष्णुका भजन करता है, उसे [ॐ नमो नारायणाय"] इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप तुमलोग सदा दूरसे ही त्याग देना । जिनके घरमें वैष्णव करते हैं, उनका दर्शन करके ब्राह्मणघाती भी शुद्ध हो भोजन करता हो, जिन्हें वैष्णवोंका सङ्ग प्राप्त हो, वे भी जाता है तथा वे स्वयं भी भगवान् विष्णुकी भाँति तेजस्वी तुम्हारे लिये त्याग देने योग्य हैं; क्योंकि वैष्णवोंके सङ्गसे प्रतीत होते हैं। उनके पाप नष्ट हो गये हैं।' पापिष्ठ मनुष्योंको नरक- जो मनुष्य हृदय, सूर्य, जल, प्रतिमा अथवा वेदीमें समुद्रसे पार जानेके लिये भगवान् विष्णुकी भक्तिके भगवान् विष्णुकी पूजा करते हैं, वे वैष्णवधामको प्राप्त सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव पुरुष चारों होते हैं। अथवा मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि वे वोंसे बाहरका हो तो भी वह तीनों लोकोंको पवित्र शालग्राम-शिलाके चक्रमें सर्वदा वासुदेव भगवान्का कर देता है। मनुष्योंके पाप दूर करनेके लिये भगवानके पूजन करें। वह श्रीविष्णुका अधिष्ठान है तथा सब गुण, कर्म और नामोंका सङ्कीर्तन किया जाय-इतने प्रकारके पापोंका नाशक, पुण्यदायक एवं सबको मुक्ति बड़े प्रयासकी कोई आवश्यकता नहीं है; क्योंकि प्रदान करनेवाला है। जो शालग्राम-शिलासे उत्पन्न हुए अजामिल-जैसा पापी भी मृत्युके समय 'नारायण' नामसे चक्रमें श्रीहरिका पूजन करता है, वह मानो प्रतिदिन एक अपने पुत्रको पुकारकर भी मुक्ति पा गया। जिस समय सहस्र राजसूय यज्ञोंका अनुष्ठान करता है। जिन शान्त मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक भगवान् श्रीहरिकी पूजा करते हैं, ब्रह्मस्वरूप अच्युतको उपनिषद् सदा नमस्कार करते हैं, उसी समय उनके मातृकुल और पितृकुल दोनों कुलोंके उन्हींका अनुग्रह शालग्राम-शिलाकी पूजा करनेसे पितर, जो चिरकालसे नरकमें पड़े होते हैं, तत्काल मनुष्योंको प्राप्त होता है। जैसे महान् काष्ठमें स्थित अग्नि स्वर्गको चले जाते हैं। जो विष्णुभक्तोंके सेवक तथा उसके अग्रभागमें प्रकाशित होती है, उसी प्रकार सर्वत्र वैष्णवोंका अन्न भोजन करनेवाले हैं, वे शान्तभावसे व्यापक भगवान् विष्णु शालग्राम-शिलामें प्रकाशित होते देवताओंकी गतिको प्राप्त होते हैं। अतः विद्वान् पुरुष हैं। जिसने शालग्राम-शिलासे उत्पन्न चक्रमें श्रीहरिका समस्त पापोंकी शुद्धिके लिये प्रार्थना और यत्नपूर्वक पूजन कर लिया उसने अग्निहोत्रका अनुष्ठान पूर्ण कर वैष्णवका अन्न प्राप्त करे; अन्नके अभावमें उसका जल लिया तथा समुद्रोंसहित सारी पृथ्वी दान दे दी। जो माँगकर ही पी ले। यदि 'गोविन्द' इस मन्त्रका जप करते नराधम इस लोकमें काम, क्रोध और लोभसे व्याप्त हो हुए कहीं मृत्यु हो जाय तो वह मरनेवाला मनुष्य न तो रहा है, वह भी शालग्राम-शिलाके पूजनसे श्रीहरिके स्वयं यमराजको देखता है और न हमलोग ही उसकी लोकको प्राप्त होता है। वैश्य ! शालग्राम-शिलाकी पूजा ओर दृष्टि डालते हैं। अङ्ग, मुद्रा, ध्यान, ऋषि, करनेसे मनुष्य तीर्थ, दान, यज्ञ और व्रतोंके बिना ही * प्राहास्मान् यमुनाभ्राता सदैव हि पुनः पुनः । भवद्धिवैष्णवास्त्याज्या न ते स्युर्मम गोचराः॥ स्मरन्ति ये सकृद्भूताः प्रसङ्गेनापि केशवम्। ते विध्वस्ताखिलाघौघा यान्ति विष्णोः परं पदम्॥ (३१।१०२-१०३) +एतावतालमधनिर्हरणाय पुंसा संकीर्तन भगवतो गुणकर्मनानाम्। विक्रुश्य पुत्रमघवान् यदजामिलोऽपि नारायणेति प्रियमाण इयाय मुक्तिम् ॥ (३१ | १०९)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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