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________________ पातालखण्ड ] • वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्य . ५५३ . . . .. शोभायमान दिखायी दे रहा है। श्रीअङ्गोंमें कर्पूर, अगरु, हैं। प्रभो ! अब मैं यह सुनना चाहती हूँ कि श्रीकृष्णका कस्तूरी और चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्य शोभा पा रहे गूढ रहस्य, माहात्म्य और सुन्दर ऐश्वर्य क्या है। आप हैं। गोरोचन आदिसे मिश्रित दिव्य अङ्गरागोंद्वारा विचित्र उसका वर्णन कीजिये।। पत्र-भङ्गो (रंग-बिरंगे चित्र) आदिकी रचना की गयी महादेवजीने कहा-देवि ! जिनके चन्द्र-तुल्य है। कटिसे लेकर पैरोंके अग्रभागतक चिकने पीताम्बरसे चरण-नखोंकी किरणोंके माहात्म्यका भी अन्त नहीं है, शोभायमान है। भगवान्का नाभि-कमल गम्भीर है, उन्हीं भगवान् श्रीकृष्णको महिमाके सम्बन्धमें मैं कुछ उसके नीचेकी रोमावलियोंतक माला लटक रही है। बातें बता रहा हूँ, तुम आनन्दपूर्वक श्रवण करो। सृष्टि, उनके दोनों घुटने सुन्दर गोलाकार है तथा कमलोको पालन और संहारकी शक्तिसे युक्त, जो ब्रह्मा आदि शोभा धारण करनेवाले चरण बड़े मनोहर जान पड़ते हैं। देवता हैं, वे सब श्रीकृष्णके ही वैभव है। उनके रूपका हाथ और पैरोंके तलुवे ध्वज, वन, अङ्कश और जो करोड़वाँ अंश है, उसके भी करोड़ अंश करनेपर कमलके चिह्नसे सुशोभित हैं तथा उनके ऊपर नखरूपी एक-एक अंश कलासे असंख्य कामदेवोंकी उत्पत्ति चन्द्रमाकी किरणावलियोंका प्रकाश पड़ रहा है। होती है, जो इस ब्रह्माण्डके भीतर व्याप्त होकर जगत्के सनक-सनन्दन आदि योगीश्वर अपने हृदयमें भगवान्के जीवोको मोहमें डालते रहते हैं। भगवान्के श्रीविग्रहकी इसी स्वरूपको झाँकी करते हैं। उनकी त्रिभङ्गी छवि है। शोभामयी कान्तिके कोटि-कोटि अंशसे चन्द्रमाका उनके श्रीअङ्ग इतने सुन्दर, इतने मनोहर है, मानो सृष्टिकी आविर्भाव हुआ है। श्रीकृष्णके प्रकाशके करोड़वें समस्त निर्माण सामग्रीका सार निकालकर बनाये गये अंशसे जो किरणें निकलती हैं, वे ही अनेकों सूर्योक हों। जिस समय वे गर्दन मोड़कर खड़े होते हैं, उस रूपमें प्रकट होती हैं। उनके साक्षात् श्रीअङ्गसे जो समय उनका सौन्दर्य इतना बढ़ जाता है कि उसके रश्मियाँ प्रकट होती हैं, वे परमानन्दमय रसामृतसे सामने अनन्तकोटि कामदेव लज्जित होने लगते हैं। बायें परिपूर्ण हैं, परम आनन्द और परम चैतन्य ही उनका कंधेपर झुका हुआ उनका सुन्दर कपोल बड़ा भला स्वरूप है। उन्हींसे इस विश्वके ज्योतिर्मय जीव जीवन मालूम होता है। उनके सुवर्णमय कुण्डल जगमगाते धारण करते हैं, जो भगवान्के ही कोटि-कोटि अंश हैं। रहते हैं। वे तिरछी चितवन और मंद मुसकानसे उनके युगल चरणारविन्दोंके नस्वरूपी चन्द्रकान्तमणिसे सुशोभित होनेवाले करोड़ों कामदेवोंसे भी अधिक सुन्दर निकलनेवाली प्रभाको ही सबका कारण बताया गया है। हैं। सिकोड़े हुए ओठपर वंशी रखकर बजाते हैं और वह कारण-तत्त्व वेदोंके लिये भी दुर्गभ्य है। विश्वको उसकी मीठी तानसे त्रिभुवनको मोहित करते हुए सबको विमुग्ध करनेवाले जो नाना प्रकारके सौरभ (सुगन्ध) हैं, प्रेम-सुधाके समुद्रमें निमग्न कर रहे हैं। वे सब भगवद्विग्रहकी दिव्य सुगन्धके अनन्तकोटि पार्वतीजीने कहा-देवदेवेश्वर ! आपके अंशमात्र हैं। भगवान के स्पर्शसे ही पुष्पगन्ध आदि नाना उपदेशसे यह ज्ञात हुआ कि गोविन्द नामसे प्रसिद्ध सौरभोंका प्रादुर्भाव होता है। श्रीकृष्णको प्रियतमाभगवान् श्रीकृष्ण ही इस जगत्के परम कारण हैं। वे ही उनकी प्राणवल्लभा श्रीराधा हैं, वे ही आद्या प्रकृति कही परमपद हैं, वृन्दावनके अधीश्वर हैं तथा नित्य परमात्मा गयी हैं।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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