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________________ 424 . . अर्चवस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . .. [संक्षिप्त पापुराण अगस्त्यका अश्वमेध यज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा श्रीराम बोले-विप्रवर ! इक्ष्वाकुवंशमें उत्पन्न आवश्यकता है? हुए किसी पुरुषके मुखसे कभी ब्राह्मणोंने कटुवचनतक अगस्त्यजीने कहा-रघुनन्दन ! जिसका रङ्ग नहीं सुना था [किन्तु मैंने उनकी हत्या कर डाली।] वर्ण गङ्गाजलके समान उज्ज्वल तथा शरीर सुन्दर हो, और आश्रमके भेदसे भिन्न-भिन्न धर्मोके मूल हैं वेद और जिसका कान श्याम, मुँह लाल और पूँछ पीले रङ्गकी हो वेदोंके मूल हैं ब्राह्मण / ब्राह्मणवंश ही वेदोंकी सम्पूर्ण तथा जो देखनेमें भी अच्छा जान पड़े, वह उत्तम शाखाओंको धारण करनेवाला एकमात्र वृक्ष है। ऐसे लक्षणोंसे लक्षित अश्व ही अश्वमेधमें ग्राह्य बतलाया ब्राह्मण-कुलका मेरेद्वारा संहार हुआ है; ऐसी अवस्थामें गया है। वैशाखमासकी पूर्णिमाको अश्वकी विधिवत् मैं क्या करूँ, जिससे मेरा कल्याण हो? पूजा करके एक ऐसा पत्र लिखे जिसमें अपने नाम और अगस्त्यजीने कहा-राजन् ! आप अन्तर्यामी बलका उल्लेख हो, वह पत्र घोड़ेके ललाटमें बाँधकर आत्मा एवं प्रकृतिसे परे साक्षात् परमेश्वर हैं। आप ही उसे स्वछन्द विचरनेके लिये छोड़ देना चाहिये तथा इस जगत्के कर्ता, पालक और संहारक हैं। साक्षात् बहुत-से रक्षकोंको तैनात करके उसकी सब ओरसे गुणातीत परमात्मा होते हुए भी आपने स्वेच्छासे प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये। यज्ञका घोड़ा जहाँ-जहाँ सगुणस्वरूप धारण किया है। शराबी, ब्रह्महत्यारा, सोना जाय, उन सब स्थानोंपर रक्षकोंको भी जाना चाहिये। जो चुरानेवाला तथा महापापी (गुरुवीगामी)-ये सभी कोई राजा अपने बल या पराक्रमके घमंडमें आकर उस आपके नामका उच्चारण करनेमात्रसे तत्काल पवित्र हो घोड़ेको जबरदस्ती बाँध ले, उससे लड़-भिड़कर उस जाते हैं।* महामते ! ये जनककिशोरी भगवती सौता अश्वको बलपूर्वक छीन लाना रक्षकोंका कर्तव्य है। महाविद्या है; जिनके स्मरणमात्रसे मनुष्य मुक्त होकर जबतक अश्व लौटकर न आ जाय, तबतक यज्ञ-कर्ताको सद्गति प्राप्त कर लेंगे। लोगोंपर अनुग्रह करनेवाले उत्तम विधि एवं नियमोंका पालन करते हुए राजधानीमें महावीर श्रीराम ! जो राजा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान ही रहना चाहिये। वह ब्रह्मचर्यका पालन करे और करता है, वह सब पापोंके पार हो जाता है। राजा मनु, मृगका सींग हाथमें धारण किये रहे। यज्ञ-सम्बन्धी सगर, मरुत्त और नहुषनन्दन ययाति-ये आपके सभी व्रतका पालन करनेके साथ ही एक वर्षतक दीनों, अंधों पूर्वज यज्ञ करके परमपदको प्राप्त हुए हैं। महाराज ! और दुःखियोंको धन आदि देकर सन्तुष्ट करते रहना आप सर्वथा समर्थ हैं, अतः आप भी यज्ञ करिये। चाहिये। महाराज ! बहुत-सा अन्न और धन दान करना परम सौभाग्यशाली श्रीरघुनाथजीने महर्षि अगस्त्यजीकी उचित है। याचक जिस-जिस वस्तु के लिये याचना करे, बात सुनकर यज्ञ करनेका ही विचार किया और उसकी बुद्धिमान् दाताको उसे वही-वही वस्तु देनी चाहिये / इस विधि पूछी। प्रकारका कार्य करते हुए यजमानका यज्ञ जब भलीभांति श्रीराम बोले-महर्षे ! अश्वमेध यज्ञमें कैसा पूर्ण हो जाता है, तो वह सब पापोंका नाश कर डालता अश्व होना चाहिये? उसके पूजनकी विधि क्या है? है। शत्रुओंका नाश करनेवाले रघुनाथजी ! आप यह किस प्रकार उसका अनुष्ठान किया जा सकता है सब कुछ करने, सब नियमोंको पालने तथा अश्वका तथा उसके लिये किन-किन शत्रुओंको जीतनेकी विधिवत् पूजन करनेमें समर्थ हैं; अतः इस यज्ञके द्वारा * सुरापो ब्रह्महत्याकृत्स्वर्णस्तेयो महायकृत् / सर्वे त्वन्नामवादेन पूताः शीघ्रं भवन्ति हि // (8 / 19)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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