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________________ २७६ . अर्थयस्व हषीकेशं यदीच्छसि पर पदम् . [संक्षिप्त पयपुराण सती भी उस पुरुषकी ओर आकृष्ट नहीं हुई। महासती इन्द्रको इस प्रकार समझा-बुझाकर कामदेवने पुष्पयुक्त सुकलाका तेज सत्यकी रज्जुसे आबद्ध था। [उस धनुष और बाण हाथमें ले लिये तथा सामने खड़ी हुई पुरुषकी दृष्टिसे बचनेके लिये] वह घरके भीतर चली अपनी सखी क्रीड़ासे कहा-'प्रिये ! तुम माया रचकर गयी और अपने पतिमें ही अनुरक्त हो उन्हींका चिन्तन वैश्यपली सुकलाके पास जाओ। वह अत्यन्त पुण्यवती, करने लगी। सत्यमें स्थित, धर्मका ज्ञान रखनेवाली और गुणज्ञ है। इन्द्र सुकलाके शुद्ध भावको समझकर सामने खड़े यहाँसे जाकर तुम मेरी सहायताके लिये उत्तम-से-उत्तम हुए कामदेवसे बोले-'इस सतीने सत्यरूप पतिक कार्य करो।' क्रीड़ासे यों कहकर वे पास ही खड़ी हुई ध्यानका कवच धारण कर रखा है। [तुम्हारे बाण इसे प्रीतिको सम्बोधित करके बोले-'तुम्हें भी मेरी चोट नहीं पहुंचा सकते,] अतः सुकलाको परास्त करना सहायताके लिये उत्तम कार्य करना होगा; तुम अपनी असम्भव है। यह पतिव्रता अपने हाथमें धर्मरूपी धनुष चिकनी-चुपड़ी बातोंसे सुकलाको वशमे करो।' इस और ध्यानरूपी उत्तम बाण लेकर इस समय रणभूमिमें प्रकार अपने-अपने कार्यमें लगे हुए वायु आदिके साथ तुमसे युद्ध करनेको उद्यत है। अज्ञानी पुरुष ही उपर्युक्त व्यक्तियोंको भेजकर कामदेवने उस महासतोको त्रिलोकोके महात्माओंके साथ वैर बाँधते हैं। कामदेव ! मोहित करनेके लिये इन्द्रके साथ पुनः प्रयाण किया। इस सतीके तपका नाश करनेसे हम दोनोंको अनन्त एवं सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके उद्देश्यसे जब इन्द्र अपार दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये अब हमें इसे और कामदेव प्रस्थित हुए; तब सत्यने धर्मसे कहाछोड़कर यहाँसे चल देना चाहिये। तुम जानते हो, पहले 'महाप्राज्ञ धर्म ! कामदेवकी जो चेष्टा हो रही है, उसपर एक बार मैं सतीके साथ समागम करनेका पापमय दृष्टिपात करो। मैंने तुम्हारे, अपने तथा महात्मा पुण्यके परिणाम-असह्य दुःख भोग चुका हूँ। महर्षि गौतमने लिये जो स्थान बनाया था, उसे यह नष्ट करना चाहता मुझे भयंकर शाप दिया था। आगकी लपटको छूनेका है। दुष्टात्मा काम हमलोगोंका शत्रु है, इसमें तनिक भी साहस कौन करेगा। कौन ऐसा मूर्ख है, जो अपने गले में सन्देह नहीं है। सदाचारी पति, तपस्वी ब्राह्मण और भारी पत्थर बाँधकर समुद्रमें उतरना चाहेगा तथा किसको पतिव्रता पत्नी- ये तीन मेरे निवास स्थान हैं। जहाँ मेरी मौतके मुखमें जानेकी इच्छा है, जो सती स्त्रीको विचलित वृद्धि होती है-जहाँ मैं पुष्ट और सन्तुष्ट रहता हूँ, वहीं करनेका प्रयत्न करेगा। तुम्हारा भी निवास होता है। श्रद्धाके साथ पुण्य भी वहाँ इन्द्रने कामदेवको उत्तम शिक्षा देनेके लिये बहुत ही आकर क्रीड़ा करते हैं। मेरे शान्तियुक्त मन्दिरमें क्षमाका नीति-युक्त बात कही; उसे सुनकर कामदेवने इन्द्रसे भी आगमन होता है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहीं सन्तोष, कहा-'सुरेश ! मैं तो आपके ही आदेशसे यहाँ आया इन्द्रिय-संयम, दया, प्रेम, प्रज्ञा और लोभहीनता आदि था। अव आप धैर्य, प्रेम तथा पुरुषार्थका त्याग करके गुण भी निवास करते हैं। वहीं पवित्र भाव रहता है। ये ऐसी पौरुषहीनता और कायरताकी बातें क्यों करते हैं। सभी सत्यके वन्धु-बान्धव है। धर्म ! चोरी न करना, पूर्वकालमें मैंने जिन-जिन देवताओं, दानवों और अहिंसा, सहनशीलता और बुद्धि-ये सब मेरे ही घरमें तपस्यामें लगे हुए मुनीश्वरोंको परास्त किया है, वे सब आकर धन्य होते हैं। गुरु-शुश्रूषा, लक्ष्मीके साथ मेरा उपहास करते हुए कहेंगे कि 'यह कामदेव बड़ा भगवान् श्रीविष्णु तथा अनि आदि देवता भी मेरे घरमें डरपोक है, एक साधारण स्त्रीने इसको क्षणभरमें परास्त पधारते हैं। मोक्ष-मार्गको प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और कर दिया।' इसलिये मैं अपने सम्मानरूपी धनकी रक्षा उदारता आदिसे युक्त हो पूर्वोक्त व्यक्तियोंके साथ मैं करूंगा और आपके साथ चलकर इस सतोके तेज, बल धर्मात्मा पुरुषों और सती स्त्रियोंके भीतर निवास करता और धैर्यका नाश करूँगा। आप डरते क्यों हैं। देवराज हूँ। ये जितने भी साधु-महात्मा है, सब मेरे गृहस्वरूप हैं;
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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