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________________ ९२८ .. अचयस्व पीकेशं यदीकासि परं पदम् .. [संक्षिप्त पद्मपुराण उत्पत्तिका केन्द्रस्थान), भू, लीला, सर्वसुखप्रदा, करनेवाले है। उन श्रीविष्णुको नमस्कार है। मैं सम्पूर्ण रुक्मिणी, सर्ववेदवती, सरस्वती, गौरी, शान्ति, स्वाहा, देश-काल आदि अवस्थाओंमें पूर्णरूपसे भगवान्का स्वधा, रति, नारायणवरारोहा, (श्रीविष्णुकी सुन्दरी पत्नी) दासत्व स्वीकार करता हूँ। इस प्रकार स्वरूपका विचार तथा विष्णोर्नित्यानुपायिनी (सदा श्रीविष्णुके समीप करके सिद्धिप्राप्त पुरुष अनायास ही दासभावको प्राप्त कर रहनेवाली)। जो प्रातःकाल उठकर इन सम्पूर्ण नामोंका लेता है। यही पूर्वोक्त मन्त्रका अर्थ है। इसको जानकर पाठ करता है, उसे बहुत बड़ी सम्पत्ति तथा विशुद्ध भगवान्में भलीभाँति भक्ति करनी चाहिये। यह चराचर धन-धान्यकी प्राप्ति होती है। जगत् भगवान्का दास ही है। श्रीनारायण इस जगत्के -हिरण्यवर्णा हरिणी : सुवर्णरजतस्रजाम्। स्वामी, प्रभु, ईश्वर, भ्राता, माता, पिता, बन्धु, निवास, चन्द्रां हिरपमयीं लक्ष्मी विष्णोरनपगामिनीम्॥ शरण और गति है। भगवान् लक्ष्मीपति कल्याणमय गन्धद्धारां दुराधा नित्यपुष्टा करीषिणीम्। गुणोंसे युक्त और समस्त कामनाओंका फल प्रदान ईश्वरी सर्वभूताना तामिहोपवये श्रियम्॥ करनेवाले है। वे ही जगदीश्वर शालोमे निर्गुण कहे गये . (२५५।२८-२९) हैं। 'निर्गुण' शब्दसे यही बताया गया है कि भगवान् 'जिनके श्रीअङ्गोंका रङ्ग सुवर्णके समान सुन्दर एवं प्रकृतिजन्य हेय गुणोंसे रहित हैं। जहाँ वेदान्तवाक्योंद्वारा गौर है, जो सोने-चाँदीके हारोंसे सुशोभित और सबको प्रपञ्चका मिथ्यात्व बताया गया है और यह कहा गया है आह्लादित करनेवाली है, भगवान् श्रीविष्णुसे जिनका कि यह सारा दृश्यमान जगत् अनित्य है, वहाँ भी कभी वियोग नहीं होता, जो स्वर्णमयो कान्ति धारण ब्रह्माण्डके प्राकृत रूपको ही नर बताया गया है। करती हैं, उत्तम लक्षणोंसे विभूषित होनेके कारण जिनका प्रकृतिसे उत्पन्न होनेवाले रूपोंकी ही अनित्यताका नाम लक्ष्मी है, जो सब प्रकारको सुगन्धोंका द्वार हैं, प्रतिपादन किया गया है। जिनको परास्त करना कठिन है, जो सदा सब अङ्गोंसे महादेवि ! इस कथनका तात्पर्य यह है कि लीलापुष्ट रहती हैं, गायके सूखे गोबरमें जिनका निवास है विहारी देवदेव श्रीहरिकी लीलाके लिये ही प्रकृतिकी तथा जो समस्त प्राणियोंकी अधीश्वरी हैं, उन भगवती उत्पत्ति हुई है। चौदह भुवन, सात समुद्र, सात द्वीप, चार श्रीदेवीका मैं यहाँ आवाहन करता हूँ।' प्रकारके प्राणी तथा ऊँचे-ऊँचे पर्वतोंसे भरा हुआ यह .. ऋग्वेदमें कहे हुए इस मन्त्रके द्वारा स्तुति करनेपर रमणीय ब्रह्माण्ड प्रकृतिसे उत्पन्न हुआ है। यह उत्तरोत्तर महेश्वरी लक्ष्मीने शिव आदि सभी देवताओंको सब महान् दस आवरणोंसे घिरा हुआ है। कला-काष्ठा आदि प्रकारका ऐश्वर्य और सुख प्रदान किया था। श्रीविष्णुपत्नी भेदसे जो कालचक्र चल रहा है, उसीके द्वारा संसारकी लक्ष्मी सनातन देवता हैं। वे ही इस जगत्का शासन सृष्टि, पालन और संहार आदि कार्य होते हैं। एक सहस्र करती हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत्की स्थिति उन्हकि चतुर्युग व्यतीत होनेपर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजीका एक कृपा-कटाक्षपर निर्भर है। अग्निमें रहनेवाली प्रभाकी दिन पूरा होता है। इतने ही बड़े दिनसे सौ वर्षोंकी उनकी भाँति भगवती लक्ष्मी जिनके वक्षःस्थलमें निवास करती आयु मानी गयी है। ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर हैं, वे भगवान् विष्णु सबके ईश्वर, परम शोभा-सम्पन्न, सबका संहार हो जाता है। ब्रह्माण्डके समस्त लोक अक्षर एवं अविनाशी पुरुष है; वे श्रीनारायण वात्सल्य- कालाग्निसे दग्ध हो जाते हैं। सर्वात्मा श्रीविष्णुको गुणके समुद्र हैं। सबके स्वामी, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, प्रकृतिमें उनका लय हो जाता है। ब्रह्माण्ड और सर्वशक्तिमान्, नित्य पूर्णकाम, स्वभावतः सबके सुहृद्, आवरणके समस्त भूत प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण सुखी, दयासुधाके सागर; समस्त देहधारियोंके आश्रय, जगत्का आधार प्रकृति है और प्रकृतिके आधार स्वर्ग और मोक्षका सुख देनेवाले और भक्तोंपर दया श्रीहरि । प्रकृतिके द्वारा ही भगवान् सदा जगत्की सृष्टि
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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