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________________ सृष्टिखण्ड ] • ब्राह्मणोंके जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व, गौओंकी महिमा, गोदानका फल . १६१ अधिक या कम भी? यदि न्यूनाधिक होता है तो क्यों? ब्रह्महत्याका पाप लगता है। यदि कोई आततायी ब्राह्मण इसको यथार्थ रूपसे बताइये। युद्धके लिये अपने पास आ रहा हो और प्राण लेनेकी ब्रह्माजीने कहा-'बेटा ! ब्रह्महत्याका जो पाप चेष्टा करता हो, तो उसे अवश्य मार डाले; इससे वह बताया गया है, वह किसी भी ब्राह्मणका वध करनेपर ब्रह्महत्याका भागी नहीं होता । जो घरमें आग लगाता है, अवश्य लागू होता है। ब्रह्महत्यारा घोर नरकमें पड़ता दूसरेको जहर देता है, धन चुरा लेता है, सोते हुएको मार है। इस विषयमें कुछ और भी कहना है, उसे सुनो। डालता है; तथा खेत और स्वीका अपहरण करता वेद-शास्त्रोंके ज्ञाता, जितेन्द्रिय एवं श्रोत्रिय ब्राह्मणकी है-ये छः आततायी माने गये हैं। संसारमें ब्राह्मणके हत्या करनेपर करोड़ों ब्राह्मणोंके वधका दोष लगता है। समान दूसरा कोई पूजनीय नहीं है। वह जगत्का गुरु शैव तथा वैष्णव ब्राह्मणको मारनेपर उससे भी दसगुना है। ब्राह्मणको मारनेपर जो पाप होता है, उससे बढ़कर अधिक पाप होता है। अपने वंशके ब्राह्मणका वध दूसरा कोई पाप है ही नहीं। करनेपर तो कभी नरकसे उद्धार होता ही नहीं। तीन नारदजीने पूछा-सुरश्रेष्ठ ! पापसे दूर रहनेवाले वेदोंके ज्ञाता स्नातककी हत्या करनेपर जो पाप लगता है, द्विजको किस वृत्तिका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना उसकी कोई सीमा ही नहीं है। श्रोत्रिय, सदाचारी तथा चाहिये? इसका यथावत् वर्णन कीजिये। तीर्थ-स्रान और वेदमन्त्रसे पवित्र ब्राह्मणके वधसे ब्रह्माजीने कहा-बेटा ! बिना मांगे मिली हुई होनेवाले पापका भी कभी अन्त नहीं होता। यदि भिक्षा उत्तम वृत्ति बतायी गयी है। उञ्छवृत्ति' उससे भी किसीके द्वारा अपनी बुराई होनेपर ब्राह्मण स्वयं भी उत्तम है। वह सब प्रकारकी वृत्तियोंमें श्रेष्ठ और शोकवश प्राण त्याग दे तो वह बुराई करनेवाला मनुष्य कल्याणकारिणी है। श्रेष्ठ मुनिगण उञ्छवृत्तिका आश्रय ब्रह्महत्यारा ही समझा जाता है। कठोर वचनों और लेकर ब्रह्मपदको प्राप्त होते हैं। यज्ञमें आये हुए कठोर बर्तावोंसे पीड़ित एवं ताड़ित हुआ ब्राह्मण जिस ब्राह्मणको यज्ञकी समाप्ति हो जानेपर यजमानसे जो अत्याचारी मनुष्यका नाम ले-लेकर अपने प्राण त्यागता दक्षिणा प्राप्त होती है, वह उसके लिये ग्राह्य वृत्ति है। है, उसे सभी ऋषि, मुनि, देवता और ब्रह्मवेत्ताओंने द्विजोंको पढ़ाकर या यज्ञ कराकर उसकी दक्षिणा लेनी ब्रह्महत्यारा बताया है। ऐसी हत्याका पाप उस देशके चाहिये। पठन-पाठन तथा उत्तम माङ्गलिक शुभ कर्म निवासियों तथा राजाको लगता है। अतः वे ब्रह्महत्याका करके भी उन्हें दक्षिणा ग्रहण करनी चाहिये। यही पाप करके अपने पितरोंसहित नरकमें पकाये जाते हैं। ब्राह्मणोंकी जीविका है। दान लेना उनके लिये अन्तिम विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह मरणपर्यन्त उपवास वृत्ति है। उनमें जो शास्त्रके द्वारा जीविका चलाते हैं, वे (अनशन) करनेवाले ब्राह्मणको मनाये-उसे प्रसन्न धन्य है। वृक्ष और लताओंके सहारे जिनकी जीविका करके अनशन तोड़नेका प्रयत्न करे । यदि किसी निदोष चलती है, वे भी धन्य हैं। पुरुषको निमित्त बनाकर कोई ब्राह्मण अपने प्राण त्यागता ब्राह्मणोचित वृत्तिके अभावमें ब्राह्मणोंको है तो वह स्वयं ही ब्रह्महत्याके घोर पापका भागी होता क्षत्रियवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करना चाहिये। उस है। जिसका नाम लेकर मरता है, वह नहीं। जो अधम अवस्थामें न्याययुक्त युद्धका अवसर उपस्थित होनेपर ब्राह्मण अपने कुटुम्बीका वध करता है, उसको भी युद्ध करना उनका कर्तव्य है। उन्हें उत्तम वीरखतका 'अग्निदो गरदथैव धनहारी च सुप्तधः । क्षेत्रदारापहारी च पडेते ह्याततायिनः ।। (४८ ॥ ५८) १-कटे हुए खेत, खलिहान या उठे हुए बाजारसे अन्नका एक-एक दाना बीनकर लाने और उसीसे जीविका चलानेका नाम 'उच्छवृत्ति' है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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