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________________ ४७२ • अर्जयस्व हबीकेशं यदीच्छसि पर पदम् ........ [संक्षिप्त पापुराण शरीरको छूकर चलनेवाली वायुका स्पर्श पाकर हम भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण किया है, वे मेरे स्थानको यातनापीड़ित प्राणियोंको बड़ा सुख मिल रहा है।' छोड़कर बहुत शीघ्र वैकुण्ठधामको प्राप्त होते हैं। "राजा बड़े धर्मात्मा थे, उन दुःखी जीवोंकी पुकार मनुष्योंके शरीरमें तभीतक पाप ठहर पाता है, जबतक सुनकर उनके हृदयमे करुणा भर आयी। वे सोचने कि वे अपनी जिह्वासे श्रीराम-नामका उच्चारण नहीं लगे-'यदि मेरे रहनेसे इन प्राणियोंको सुख होता है, तो करते।* महामते ! जो बड़े-बड़े पापोंका आचरण अब मैं इसी नगरमें निवास करूंगा; यही मेरे लिये करनेवाले हैं, उन्हीं लोगोंको मेरे दूत यहाँ ले आते मनोहर स्वर्ग है।' ऐसा विचार करके राजा जनक दुःखी है! तुम्हारे-जैसे पुण्यात्माओंकी ओर तो वे देख ही प्राणियोंको सुख पहुँचानेके लिये वहीं-नरकके नहीं सकते; अतः महाराज ! यहाँसे जाओ और अनेक दरवाजेपर ही ठहर गये । उस समय उनका हृदय दयासे प्रकारके दिव्य भोगोंका उपभोग करो। इस श्रेष्ठ परिपूर्ण हो रहा था। इतनेहीमें नरकके उस दुःखदायी विमानपर आरूढ़ होकर अपने उपार्जित किये हुए द्वारपर नाना प्रकार पातकके करनेवाले प्राणियोंको कठोर पुण्यको भोगो।' यातना देते हुए स्वयं धर्मराज उपस्थित हुए। उन्होंने "जनकने कहा-'नाथ ! मुझे इन दुःखी देखा, महान् पुण्यात्मा तथा दयालु राजा जनक विमानपर जीवोंपर दया आती है, अतः इन्हें छोड़कर मैं नहीं जा आरूढ़ हो नरकके दरवाजेपर खड़े हैं। उन्हें देखकर सकता। मेरे शरीरकी वायुका स्पर्श पाकर इन लोगोंको प्रेतराज हैंस पड़े और बोले-'राजन् ! तुम तो समस्त सुख मिल रहा है। धर्मराज ! यदि आप नरकमें पड़े हुए धर्मात्माओंके शिरोमणि हो, भला तुम यहाँ कैसे आये? इन सभी प्राणियोंको छोड़ दें, तो मैं पुण्यात्माओके यह स्थान तो प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले पापाचारी एवं निवासस्थान स्वर्गको सुखपूर्वक जा सकता हूँ।' दुष्टात्मा जीवोंके लिये है। यहाँ तुम्हारे समान पुण्यात्मा "धर्मराज बोले-राजन् ! [यह जो तुम्हारे पुरुष नहीं आते। यहाँ उन्हीं मनुष्योंका आगमन होता है, सामने खड़ा है] इस पापीने अपने मित्रकी पत्नीके साथ, जो अन्य प्राणियोंसे द्रोह करते, दूसरोपर कलङ्क लगाते जो इसके ऊपर पूर्ण विश्वास करती थी, बलात्कार किया तथा औरोंका धन लूट-खसोटकर जीविका चलाते हैं। है; इसलिये मैंने इसे लोहशङ्क नामक नरकमें डालकर जो अपनी सेवामें लगी हुई धर्म-परायणा पत्नीको बिना दस हजार वर्षातक पकाया है। इसके पश्चात् इसे किसी अपराधके त्याग देता है, उसको भी यहाँ आना सूअरकी योनिमें डालकर अन्तमें मनुष्य के शरीरमें उत्पन्न पड़ता है। जो धनके लालचमें फंसकर मित्रके साथ करना है। मनुष्य-योनिमें यह नपुंसक होगा। इस दूसरे धोखा करता है, वह मनुष्य यहाँ आकर मेरे हाथसे पापीने अनेकों बार बलपूर्वक परायी स्त्रियोंका आलिङ्गन भयङ्कर यातना प्राप्त करता है। जो मूढचित्त मानव दम्भ, किया है; इसलिये यह सौ वर्षोंतक रौरव नरकमें पकाया द्वेष अथवा उपहासवश मन, वाणी एवं क्रियाद्वारा कभी जायगा और यह जो पापी खड़ा है, यह बड़ी नीच भगवान् श्रीरामका स्मरण नहीं करता, उसे बाँधकर मैं बुद्धिका है। इसने दूसरोका धन चुराकर स्वयं भोगा है; नरकोंमें डाल देता हूँ और अच्छी तरह पकाता हूँ। इसलिये इसके दोनों हाथ काटकर मैं इसे पूयशोणित जिन्होंने नरकके कष्टका निवारण करनेवाले रमानाथ नामक नरकमें पकाऊँगा। इसने सायंकालके समय * यो राम मनसा वाचा कर्मणा दम्भतोऽपि वा । द्वेषादा चोपहासाद्वा न स्मरत्येव मूढधीः ॥ तं बध्नामि पुनस्त्वेषु निक्षिप्य श्रपयामि च ।यैः स्मृतो वै रमानाथो नरकोशवारकः ॥ ते मत्स्थान बिहायाशु वैकुण्ठायं प्रयान्त्यहो । तावत्पापं मनुष्याणामडेय नृप तिष्ठति ॥ यावद्राम : रसनया . न गृह्णाति सुदुर्मतिः ॥
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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