SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिखण्ड ] • पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन • ०९७ साग, दही, मूल, फल, घास, लकड़ी, फूल, पत्ती, वस्त्र-दान करनेवाले मनुष्य दिव्य वस्त्र धारण करके काँसा, चाँदी, जूता, छाता, बैलगाड़ी, पालकी, मुलायम परलोकमें जाते हैं। पालकी दान करनेसे भी जीव आसन, ताँबा, सीसा, राँगा, शङ्ख, वंशी आदि बाजा, विमानद्वारा सुखपूर्वक यात्रा करता है। सुखासन (गद्दे, घरकी सामग्री, ऊन, कपास, रेशम, रङ्ग, पत्र आदि तथा कुर्सी आदि)के दानसे भी वह सुखपूर्वक जाता है। महीन वस्त्र चुराते हैं या इसी तरहके दूसरे-दूसरे द्रव्योंका बगीचा लगानेवाला पुरुष शीतल छायामें सुखसे अपहरण करते हैं, वे सदा नरकमें पड़ते हैं। दूसरेकी परलोककी यात्रा करता है। फूल-माला दान करनेवाले वस्तु थोड़ी हो या बहुत-जो उसपर ममता करके उसे पुरुष पुष्पक विमानसे जाते हैं। जो देवताओंके लिये चुराता है, वह निस्सन्देह नरकमें गिरता है। इस तरहके मन्दिर, संन्यासियोंके लिये आश्रम तथा अनाथों और पाप करनेवाले मनुष्य मृत्युके पश्चात् यमराजकी आज्ञासे रोगियोंके लिये घर बनवाते हैं, वे परलोकमें उत्तम यमलोकमें जाते हैं। यमराजके महाभयंकर दूत उन्हें ले महलोंके भीतर रहकर विहार करते हैं। जो देवता, अग्नि, जाते हैं। उस समय उनको बहुत दुःख उठाना पड़ता है। गुरु, ब्राह्मण, माता और पिताकी पूजा करता है तथा देवता, मनुष्य तथा पशु-पक्षी-इनमेंसे जो भी अधर्ममें गुणवानों और दीनोंको रहनेके लिये घर देता है, वह सब मन लगाते हैं, उनके शासक धर्मराज माने गये हैं। वे कामनाओंको पूर्ण करनेवाले ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है। भाँति-भांतिके भयानक दण्ड देकर पापोंका भोग कराते राजन् ! जिसने श्रद्धाके साथ ब्राह्मणको एक कौड़ीका भी हैं। विनय और सदाचारसे युक्त मनुष्य यदि भूलसे दान किया है, वह स्वर्गलोकमें देवताओंका अतिथि होता मलिन आचारमें लिप्त हो जायें तो उनके लिये गुरु ही है तथा उसकी कीर्ति बढ़ती है। अतः श्रद्धापूर्वक दान शासक माने गये हैं; वे कोई प्रायश्चित्त कराकर उनके पाप देना चाहिये। उसका फल अवश्य होता है। धो सकते हैं। ऐसे लोगोंको यमराजके पास नहीं जाना अहिंसा, क्षमा, सत्य, लज्जा, श्रद्धा, इन्द्रिय-संयम, पड़ता। परस्त्री-लम्पट, चोर तथा अन्यायपूर्ण बर्ताव दान, यज्ञ, ध्यान [और ज्ञान]-ये धर्मके दस साधन करनेवाले पुरुषोपर राजाका शासन होता है-राजा ही है। अन्न देनेवालेको प्राणदाता कहा गया है और जो उनके दण्ड-विधाता माने गये हैं; परन्तु जो पाप छिपकर प्राणदाता है, वही सब कुछ देनेवाला है। अतः अत्रकिये जाते हैं, उनके लिये धर्मराज ही दण्डका निर्णय दान करनेसे सब दानोंका फल मिल जाता है। अनसे करते हैं। इसलिये अपने किये हुए पापोंके लिये पुष्ट होकर ही मनुष्य पुण्यका संचय करता है; अतः प्रायश्चित्त करना चाहिये। अन्यथा वे करोड़ों कल्पोंमे भी पुण्यका आधा अंश अन्न-दाताको और आधा भाग [फल-भोग कराये बिना] नष्ट नहीं होते। मनुष्य मन, पुण्यकर्ताको प्राप्त होता-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं वाणी तथा शरीरसे जो कर्म करता है, उसका फल उसे है। धर्म, अर्थ काम और मोक्षका सबसे बड़ा साधन है स्वयं भोगना पड़ता है; कोंके अनुसार उसकी सद्गति या शरीर और शरीर स्थिर रहता है अन्न तथा जलसे; अतः अधोगति होती है। राजन् ! इस प्रकार संक्षेपसे मैंने तुम्हें अन्न और जल ही सब पुरुषार्थोक साधन हैं। अन्न पापोंके भेद बताये हैं; बोलो, अब और क्या सुनाऊँ? दानके समान दान न हुआ है न होगा। जल तीनों ययातिने कहा-मातले ! अधर्मके सारे फलोंका लोकोंका जीवन माना गया है। वह परम पवित्र, दिव्य, वर्णन तो मैंने सुन लिया; अब धर्मका फल बताओ। शुद्ध तथा सब रसोंका आश्रय है। मातलिने कहा-राजन् ! जो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको अन्न, पानी, घोड़ा, गौ, वस्त्र शय्या, सूत और जूता और खड़ाऊँ दान करता है, वह बहुत बड़े आसन-इन आठ वस्तुओका दान प्रेतलोकके लिये विमानपर बैठकर सुखसे परलोककी यात्रा करता है, बहुत उत्तम है। इस प्रकार दानविशेषसे मनुष्य
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy