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________________ २९८ • अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पापुराण धर्मराजके नगरमें सुखपूर्वक जाता है; इसलिये धर्मका श्रीविष्णुके ध्यानमें संलग्न रहनेवाले वैष्णव वैकुण्ठधाममें अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। राजन् ! जो लोग क्रूर चक्रधारी भगवान् श्रीविष्णुके समीप जाते हैं। श्रीविष्णुका कर्म करते और दान नहीं देते हैं, उन्हें नरकमें दुःसह उत्तम लोक श्रीशङ्करजीके निवासस्थानसे ऊपर समझना दुःख भोगना पड़ता है। दान करके मनुष्य अनुपम सुख चाहिये। वहाँ श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर रहनेवाले वैष्णव भोगते है। मनुष्य ही जाते हैं। मनुष्योंमें श्रेष्ठ, सदाचारी, यज्ञ जो एक दिन भी भक्तिपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करानेवाले, सुनौतियुक्त और विद्वान् ब्राह्मण ब्रह्मलोकको करता है, वह भी शिवलोकको प्राप्त होता है; फिर जो जाते हैं। युद्धमें उत्साहपूर्वक जानेवाले क्षत्रियोंको अनेकों बार उनकी अर्चना कर चुका है, उसके लिये तो इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है तथा अन्यान्य पुण्यकर्ता भी कहना ही क्या है। श्रीविष्णुकी भक्तिमें तत्पर और पुण्यलोकोंमें गमन करते हैं। मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ-तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना ययाति बोले-मातले। तुमने धर्म और भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करते हैं और सदा उन्हींमें अधर्म-सबका उत्तम प्रकारसे वर्णन किया। अब मन लगाये रहते हैं, वे उन्हीं के परम पदको प्राप्त होते हैं। देवताओंके लोकोंकी स्थितिका वर्णन करो। उनकी नरश्रेष्ठ ! श्रीशिव और भगवान् श्रीविष्णुके लोक एक-से संख्या बताओ। जिस पुण्यके प्रसङ्गसे जिसने जो लोक ही हैं, उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि उन दोनों प्राप्त किया हो, उसका भी वर्णन करो। महात्माओं-श्रीशिव तथा श्रीविष्णुका स्वरूप भी एक मातलिने कहा-राजन् ! देवताओंके लोक ही है। श्रीविष्णुरूपधारी शिव और श्रीशिवरूपधारी भावमय हैं। भावोंके अनेक रूप दिखायी देते हैं; अतः विष्णुको नमस्कार है। श्रीशिवके हृदयमें विष्णु और भावात्मक जगत्की संख्या करोड़ोंतक पहुँच जाती है। श्रीविष्णुके हृदयमें भगवान् शिव विराजमान हैं। ब्रह्मा, परन्तु पुण्यात्माओंके लिये उनमेंसे अट्ठाईस लोक ही विष्णु और शिव-ये तीनों देवता एकरूप ही हैं। इन प्राप्य हैं, जो एक-दूसरेके ऊपर स्थित और अत्यन्त तीनोंके स्वरूपमें कोई अन्तर नहीं है, केवल गुणोंका भेद विशाल हैं। जो लोग भगवान् शङ्करको नमस्कार करते बतलाया गया है।* राजेन्द्र ! आप श्रीशिवके भक्त तथा हैं, उन्हें शिवलोकका विमान प्राप्त होता है। जो भगवान् विष्णुके अनुरागी हैं; अतः आपपर ब्रह्मा, विष्णु प्रसङ्गवश भी शिवका स्मरण या नाम-कीर्तन अथवा और शिव-तीनों देवता प्रसन्न हैं। मानद ! मैं इन्द्रकी उन्हें नमस्कार कर लेता है, उसे अनुपम सुखकी प्राप्ति आज्ञासे इस समय आपके पास आया हूँ। अतः पहले होती है। फिर जो निरन्तर उनके भजनमें ही लगे रहते इन्द्रलोकमें चलिये; उसके बाद क्रमशः ब्रह्मलोक, हैं, उनके विषयमें तो कहना ही क्या है। जो ध्यानके द्वारा शिवलोक तथा विष्णुलोकको जाइयेगा। वे लोक दाह * शैव च वैष्णवं लोकमेकरूपं नरोत्तम । द्वयोश्चाप्यन्तर नास्ति एकरूपं महात्मनोः । शिवाय विष्णुरूपाय विष्णवे शिवरूपिणे । शिवस्य हृदये विष्णुर्विष्णोक्ष हृदये शिवः ॥ एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । त्रयाणामन्तरं नास्ति गुणभेदाः प्रकीर्तिताः ।। (७१ । १८-२०)
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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