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________________ पातालखण्ड ] • राजा रत्नप्रीवका भगवानका दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना . ४५७ . . . . .. . . . . . . . . . . . . जो आनन्द मिला, उसका ब्रह्माजी भी अनुभव नहीं कर महाबुद्धिमान् राजाने अपनेको उनका कृपापात्र माना । सकते। दुन्दुभी बजने लगी तथा वीणा, पणव और स्वप्रमें ये सारी बातें देखकर जब वे प्रातःकाल नींदसे उठे गोमुख आदि बाजे भी बज उठे। महाराज रत्नग्रीवके तो तपस्वी ब्राह्मणको बुलाकर उन्होंने अपने देखे हुए मनमें उस समय बड़ा उल्लास छा गया था। वे प्रतिक्षण सपनेका सारा समाचार उनसे कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान्का गुणगान करते हुए, नाचते, खड़े होते, हँसते, बुद्धिमान् ब्राह्मणको बड़ा विस्मय हुआ, उन्होंने बोलते और बात करते थे। उन्हें सब सन्तापोंका नाश कहा-'राजन् ! तुमने जिन भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन करनेवाले घनीभूत आनन्दकी प्राप्ति हुई थी। तदनन्तर किया है, वे तुम्हें अपना शङ्ख, चक्र आदि चिह्नोंसे सारा दिन भगवान्के कीर्तन और स्मरणमें बिताकर राजा विभूषित स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं।' यह सुनकर रत्नग्रीव रातमें गङ्गाजीके तटपर, जो महान् फल प्रदान महामना रत्नग्रीवने दीन-दुःखियोंको उनकी इच्छाके करनेवाला है, सो रहे। सपनेमें उन्होंने देखा, 'मेरा स्वरूप अनुसार दान दिलाया। फिर गङ्गासागर-सङ्गममें नान चतुर्भुज हो गया है। मैं शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और शाह- करके देवताओं और पितरोंका तर्पण किया तथा धनुष धारण किये हुए हूँ तथा भगवान् पुरुषोत्तमके भगवान्के गुणोंका गान करते हुए वे उनके दर्शनकी सामने रुद्र आदि देवताओंके साथ नृत्य कर रहा हूँ।' प्रतीक्षा करने लगे। तदनन्तर, जब दोपहरका समय हुआ तो आकाशमें बारंबार दुन्दुभियाँ बजने लगीं। देवताओंके हाथसे बजाये जानेके कारण उनसे बड़े जोरकी आवाज होती थी। सहसा राजाके मस्तकपर फूलोकी वर्षा हुई। देवता कहने लगे--'नृपश्रेष्ठ ! तुम धन्य हो! नौलाचलका प्रत्यक्ष दर्शन करो।' देवताओंकी कही हुई यह बात ज्यों ही राजाके कानोंमें पड़ी, त्यों ही नीलगिरिके नामसे प्रसिद्ध वह महान् पर्वत उनकी आँखोंके समक्ष प्रकट हो गया। करोड़ों सूर्योक समान उसका प्रकाश छा रहा था। चारों ओरसे सोने और चाँदीके शिखर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। राजा सोचने लगे-क्या यह अग्नि प्रज्वलित हो रहा है या दूसरे सूर्यका उदय हुआ है? अथवा स्थिर कान्ति धारण करनेवाला विद्युतपुञ्ज ही सहसा सामने प्रकट हो गया है?' _तपस्वी ब्राह्मणने अत्यन्त शोभासम्पन्न नीलगिरिको देखकर राजासे कहा-'महाराज ! यही वह परम पवित्र उन्हें यह भी दिखायी दिया कि शङ्ख, चक्र, गदा और पद्य महान् पर्वत है।' यह सुनकर नृपश्रेष्ठ रत्नगीवने मस्तक आदि आयुध तथा विश्वक्सेन आदि पार्षदगण परम झुकाकर उसे प्रणाम किया और कहा- 'मैं धन्य और सुन्दर दिव्य स्वरूपसे प्रकट हो सदा श्रीलक्ष्मीपतिकी कृतकृत्य हो गया; क्योंकि इस समय मुझे नीलाचलका उपासनामें संलग्न रहते हैं। यह सब देखकर उन्हें अद्भुत प्रत्यक्ष दर्शन हो रहा है। राजमन्त्री, रानी और करम्ब हर्ष और आश्चर्य हुआ। अपनी मनोवाञ्छित कामना नामका जुलाहा-ये भी नीलाचलका दर्शन पाकर बड़े पूर्ण करनेवाले भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन पाकर प्रसन्न हुए। नरश्रेष्ठ ! उपर्युक्त पाँचों व्यक्तियोंने
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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