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________________ ४५८ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्मपुराण विजयनामक मुहूर्तमें नीलगिरिपर चढ़ना आरम्भ किया। प्रणामके पश्चात् वेदोक्त मन्त्रोंद्वारा उन्हें विधिवत् स्नान उस समय उन्हें देवताओंद्वारा बजायी हुई महान् कराया और प्रसन्न चित्तसे अर्घ्य, पाद्य आदि उपचार दुन्दुभियोंकी ध्वनि सुनायी दे रही थी। पर्वतके ऊपरी अर्पण किये। इसके बाद भगवान्के श्रीविग्रहमें चन्दन शिखरपर, जो विचित्र वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था, लगाकर उन्हें वस्त्र निवेदन किया तथा धूप-आरती करके उन्होंने एक सुवर्णजटित परम सुन्दर देवालय देखा । जहाँ सब प्रकारके स्वादसे युक्त मनोहर नैवेद्य भोग लगाया। प्रतिदिन ब्रह्माजी आकर भगवान्की पूजा करते हैं तथा अन्तमें पुनः प्रणाम करके तापस ब्राह्मणके साथ वे श्रीहरिको सन्तोष देनेवाला नैवेद्य भोग लगाते हैं। वह भगवान्की स्तुति करने लगे। उसमें उन्होंने अपनी अद्भुत एवं उज्ज्वल देवालय देखकर राजा सबके साथ बुद्धिके अनुसार श्रीहरिके गुण-समुदायसे ग्रथित उसके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ एक सोनेका सिंहासन था, स्तोत्रोंका संग्रह सुनाया था। जो बहुमूल्य मणियोंसे जटित होनेके कारण अत्यन्त राजा बोले-भगवन् ! एकमात्र आप ही पुरुष विचित्र दिखायी दे रहा था। उसके ऊपर भगवान् (अन्तर्यामी) हैं। आप ही प्रकृतिसे परे साक्षात् भगवान् चतुर्भुज रूपसे विराजमान थे ! उनकी झांकी बड़ी हैं। आप कार्य और कारणसे भिन्न तथा महत्तत्त्व आदिसे मनोहर दिखायी देती थी। चण्ड, प्रचण्ड और विजय पूजित हैं। सृष्टि-रचनामे कुशल ब्रह्माजी आपहीके आदि पार्षद उनकी सेवामें खड़े थे। नृपश्रेष्ठ रत्नग्रीवने नाभि-कमलसे उत्पन्न हुए हैं तथा संहारकारी रुद्रका अपनी रानी और सेवकोंसहित भगवानको प्रणाम किया। आविर्भाव भी आपहीके नेत्रोंसे हुआ है। आपकी ही आज्ञासे ब्रह्माजी इस संसारकी सृष्टि करते हैं। पुराणपुरुष ! आदिकालका जो स्थावर-जङ्गमरूप जगत् दिखायी देता है, वह सब आपसे ही उत्पन्न हुआ है। आप ही इसमें चेतनाशक्ति डालकर इस संसारको चेतन बनाते हैं। जगदीश्वर ! वास्तवमें आपका जन्म तो कभी होता ही नहीं है; अतएव आपका अन्त भी नहीं है। प्रभो! आपमें वृद्धि, क्षय और परिणाम-इन तीनों विकारोंका सर्वथा अभाव है, तथापि आप भक्तोंकी रक्षा और धर्मकी स्थापनाके लिये अपने अनुरूप गुणोंसे युक्त दिव्य जन्म-कर्म स्वीकार करते हैं। आपने मत्स्यावतार धारण करके शवासुरको मारा और वेदोंकी रक्षा की। ब्रह्मन् ! आप महापुरुष (पुरुषोत्तम) और सबके पूर्वज हैं। महाविष्णो ! शेष भी आपकी महिमाको नहीं जानते। भगवती वाणी भी आपको समझ नहीं पाती, फिर मेरे-जैसे अन्यान्य अज्ञानी जीव कैसे आपकी स्तुति करनेमें समर्थ हो सकते हैं?* एकस्त्वं पुरुषः साक्षाद् भगवान् प्रकृतेः परः । कार्यकारणतो भिन्नो महतत्वादिपूजितः ।। त्वन्नाभिकमलाजशे ब्रह्मा सृष्टिविचक्षणः । तथा संहारकर्ता च रुद्रस्त्वन्नेत्रसंभवः ॥ त्वयाऽज्ज्ञप्तः करोत्यस्य विश्वस्य परिचेष्टितम्॥
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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