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________________ उत्तरखण्ड ] ******** नाम कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रका वर्णन - भगवान् ३६० सर्ववागीश्वरेश्वर: ब्रह्मा आदि ज्ञानके सागर, ३८० अखण्डबी : - संशय विपर्यय आदिके द्वारा कभी खण्डित न होनेवाली बुद्धिसे युक्त, ३८१ मत्स्यदेवः - मत्स्यावतारधारी भगवान्, ३८२ महाशृङ्गः:- मत्स्य शरीरमें ही महान् शृङ्ग धारण करनेवाले, ३८३ जगद्वीजवहित्रधृक् — संसारकी बीजभूत ओषधियोंके सहित नौकाको अपने सींगमे बांधकर धारण करनेवाले मत्स्य भगवान् ॥ १८० ॥ देवीके स्वामी, ३६४ अनन्तविद्याप्रभवः - असंख्य लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिऋग्वेदादिप्रवर्तकः । विद्याओं की उत्पत्तिके हेतु, ३६५ मूलाविद्याविनाशकः भव-बन्धनकी हेतुभूत मूल अविद्याका समस्त वागीश्वरोंके भी ईश्वर ।। १७६ ।। सर्वदेवमयो ब्रह्मगुरुर्वागीश्वरीपतिः । अनन्तविद्याप्रभवो मूलाविद्याविनाशकः ॥ २७७ ॥ ३६१ सर्वदेवमयः - सम्पूर्ण देवस्वरूप, ३६२ ब्रह्मगुरुः - ब्रह्माजीको वेदका उपदेश करनेवाले गुरु, ३६३ वागीश्वरीपतिः- वाणीकी अधीश्वरी सरस्वती आदिकूपोऽखिलाधारस्तृणीकृतजगद्धरः विनाश करनेवाले ॥ १७७॥ सार्वश्यदो नमज्जाङयनाशको मधुसूदनः । अनेकमन्त्रकोटीशः शब्दब्रौकपारगः ॥ १७८ ॥ ३६६ सार्वज्ञ्यदः सर्वज्ञता प्रदान करनेवाले, ३६७ नमज्जाड्यनाशकः - प्रणाम करनेवाले भक्तोंकी जड़ताका नाश करनेवाले, ३६८ मधुसूदनः- मधु नामक दैत्यका वध करनेवाले, ३६९ अनेकमन्त्र कोटीश :- अनेक करोड़ मन्त्रोंके स्वामी, ३७० शब्दब्रह्मैकपारगः- शब्दब्रह्म (वेद-वेदाङ्गों) के एकमात्र पारङ्गत विद्वान् ॥ १७८ ॥ आदिविद्वान् वेदकर्ता वेदात्मा श्रुतिसागरः | ब्रह्मार्थवेदाहरणः सर्वविज्ञानजन्मभूः ॥ १७९ ॥ ३७१ आदिविद्वान् सर्वप्रथम वेदका ज्ञान प्रकाशित करनेवाले, ३७२ वेदकर्ता — अपने निःश्वासके साथ वेदोंको प्रकट करनेवाले, ३७३ वेदात्मा- वेदोंके सार तत्त्व-उनके द्वारा प्रतिपादित होनेवाले सिद्धान्तभूत परमात्मा, ३७४ श्रुतिसागरःवैदिक ज्ञानके समुद्र, ३७५ ब्रह्मार्थवेदाहरण:मत्स्यरूप धारण करके ब्रह्माजीके लिये वेदोंको ले आनेवाले, ३७६ सर्वविज्ञानजन्मभूः- - सब प्रकारके विज्ञानोंकी जन्मभूमि ॥ १७९ ॥ विद्याराजो ज्ञानमूर्तिर्ज्ञानसिन्धुरखण्डधीः । मत्स्यदेवो महाभूङ्गो जगद्वीजवहित्रधृक् ।। १८० ।। ३७७ विद्याराज:- समस्त विद्याओंके राजा, ३७८ ज्ञानमूर्तिः - ज्ञानस्वरूप ३७९ ज्ञानसिन्धुः - ७०५ ******************* ।। १८१ ।। ३८४ लीलाव्याप्ताखिलाम्भोधिः - अपने मत्स्य शरीरसे लीलापूर्वक सम्पूर्ण समुद्रको आच्छादित कर लेनेवाले, ३८५ ऋग्वेदादिप्रवर्तकः ऋग्वेद, यजुर्वेद आदिके प्रवर्तक, ३८६ आदिकुर्मःसर्वप्रथम कच्छपरूपमें प्रकट होनेवाले भगवान्, ३८७ अखिलाधारः - अखिल ब्रह्माण्डके आधारभूत, ३८८ तृणीकृतजगद्भरः:- समस्त जगत्के भारको तिनकेके समान समझनेवाले ॥ १८१ ॥ अमरीकृतदेवीघः पीयूषोत्पत्तिकारणम् । आत्माधारो धराधारो यज्ञाङ्गो धरणीधरः ।। १८२ ।। ३८९ अमरीकृतदेवीघः - अमृत पिलाकर देवसमुदायको अमर बनानेवाले, ३९० पीयूषोत्पत्तिकारणम् - क्षीरसागरसे अमृतके निकालनेमें प्रधान कारण, ३९१ आत्माधारः - अन्य किसी आधारकी अपेक्षा न रखकर अपने ही आधारपर स्थित रहनेवाले, ३९२ धराधारः - पृथ्वीके आधार, ३९३ यज्ञाङ्गः - यज्ञमय शरीरवाले भगवान् वराह, ३९४ धरणीधरः - अपनी दाढ़ोंपर पृथ्वीको धारण करनेवाले ।। १८२ ।। हिरण्याक्षहरः पृथ्वीपतिः श्राद्धादिकल्पकः । समस्तपितृभीतिनः समस्तपितृजीवनम् ॥ १८३ ॥ ३९५ हिरण्याक्षहरः - वराहरूपसे ही हिरण्याक्ष नामक दैत्यका वध करनेवाले, ३९६ पृथ्वीपतिःउक्त अवतारमें ही पृथ्वीको पत्नीरूपमें ग्रहण करनेवाले, अथवा पृथ्वीके पालक, ३९७ श्राद्धादिकल्पकःपितरोंके लिये श्राद्ध आदिकी व्यवस्था करनेवाले, ३९८ -
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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