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________________ उत्तरखण्ड] .श्रीमद्भागवतके सप्ताह-पारायणकी विधि तथा भागवत-माहात्म्यका उपसंहार . ८६७ तो फलाहार अथवा एक समय भोजन करके कथा सुने। इस प्रकार व्रतकी विधि पूर्ण करके उसका उद्यापन तात्पर्य यह कि जिसके लिये जो नियम सुगमतापूर्वक करे । उत्तम फलकी इच्छा रखनेवाले पुरुषोंको जन्माष्टमीनिभ सके, वह उसीको कथा सुननेके लिये ग्रहण करे। व्रतके समान इसका उद्यापन करना चाहिये। जो मैं तो उपवासकी अपेक्षा भोजनको ही श्रेष्ठ मानता हूँ, अकिञ्चन भक्त हैं, उनके लिये प्रायः उद्यापनका आग्रह यदि वह कथा-श्रवणमें सहायक हो सके। अगर नहीं है। वे कथा-श्रवणमात्रसे ही शुद्ध हो जाते हैं; उपवाससे कथामें विघ्न पड़ता हो तो वह अच्छा नहीं क्योंकि वे निष्काम वैष्णव हैं। इस तरह सप्ताह-यज्ञ पूर्ण माना गया है। होनेपर श्रोताओंको बड़ी भक्ति के साथ पुस्तक तथा नारदजी ! नियमसे सप्ताह-कथा सुननेवाले पुरुषोंके कथावाचककी पूजा करनी चाहिये और वक्ताको उचित लिये पालन करनेयोग्य जो नियम हैं, उन्हें बतलाता हूँ, है कि वह श्रोताओको प्रसाद एवं तुलसीकी माला दे। सुनिये। जिन्होंने श्रीविष्णुमन्त्रकी दीक्षा नहीं ली है तत्पश्चात् मृदङ्ग बजाकर तालस्वरके साथ कीर्तन किया अथवा जिनके हृदयमें भगवानको भक्ति नहीं है, उन्हें जाय, जय-जयकार और नमस्कार शब्दके साथ शङ्खोंकी इस कथाको सुननेका अधिकार नहीं है। कथाका व्रत ध्वनि हो तथा ब्राह्मणों और याचकोको धन दिया जाय। लेनेवाला पुरुष ब्रह्मचर्यसे रहे, भूमिपर शयन करे और यदि श्रोता विरक्त हो तो कथा-समाप्तिके दूसरे दिन गीता कथा समाप्त होनेपर पत्तलमें भोजन करे। दाल, मधु, बाँचनी चाहिये और गृहस्थ हो तो कर्मको शान्तिके लिये तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्नको होम करना चाहिये। उस हवनमे दशम स्कन्धका वह सर्वथा त्याग दे। काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घी, लोभ, दम्भ, मोह तथा द्वेषको बुरा समझकर पास न तिल और अन्न आदिसे युक्त हवन-सामग्रीकी आहुति दे आने दे। वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक, स्त्री, राजा अथवा एकाग्रचित्त होकर गायत्री मन्त्रसे हवन करे; और महापुरुषोंकी निन्दा न करे । रजस्वला स्त्री, अन्त्यज क्योंकि वास्तवमें यह महापुराण गायत्रीमय ही है। यदि (चाण्डाल आदि), मलेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, होम करानेकी शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करनेके ब्राह्मणद्रोही तथा वेदको न माननेवाले पुरुषोंसे वार्तालाप लिये विद्वान् पुरुष ब्राह्मणोंको कुछ हवन-सामग्रीका दान न करे। नियमसे कथाका व्रत लेनेवाले पुरुषको सदा करे तथा कर्ममें जो नाना प्रकारकी त्रुटियाँ रह गयी हो सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारताका या विधिमें जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गयी हो, बर्ताव करना चाहिये। दरिद्र, क्षयका रोगी, अन्य किसी उनके दोषकी शान्तिके लिये विष्णुसहस्रनामका पाठ रोगसे पीड़ित, भाग्यहीन, पापाचारी, सन्तानहीन तथा करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं, क्योंकि इससे मुमुक्षु पुरुष इस कथाको अवश्य सुने। जिस स्त्रीका बढ़कर दूसरा कोई साधन नहीं है। हवनके पश्चात् बारह मासिक धर्म रुक गया हो, जिसके एक ही सन्तान होकर ब्राह्मणोंको मीठी खीर भोजन करावे और व्रतकी पूर्तिके रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसके बच्चे पैदा होकर मर लिये दूध देनेवाली गौ तथा सुवर्णका दान करे । यदि जाते हों तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो, उस स्त्रीको शक्ति हो तो तीन तोले सोनेका एक सिंहासन बनवावे, प्रयत्नपूर्वक इस कथाका श्रवण करना चाहिये। इन्हें उसपर सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई श्रीमद्भागवतकी पोथी विधिपूर्वक दिया हुआ कथाका दान अक्षय फल देने- रखकर आवाहन आदि उपचारोंसे उसका पूजन करे। वाला है [अर्थात् ये यदि कथा सुनें तो इनके उक्त फिर वस्त्र, आभूषण और गन्ध आदिके द्वारा जितेन्द्रिय दोष अवश्य मिट जाते हैं] । कथाके लिये सात दिन आचार्यकी पूजा करके उन्हें दक्षिणासहित वह पुस्तक अत्यन्त उत्तम माने गये हैं। वे कोटि यज्ञोंका फल दान कर दे। जो बुद्धिमान् श्रोता ऐसा करता है, वह देनेवाले है। भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। यह सप्ताह-यज्ञका
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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