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________________ ८८६ • अर्चयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [ संक्षिप्त पद्मपुराण कारण सुनिये । मैं पुण्यका फल पाकर देवलोकमें गया। उठाकर स्वयं सुषुम्णा नाडीमें स्थित हो गये । इस तरह वहाँ देवताका शरीर, दिव्य नारीका सुख और दिव्य एक मासतक निराहार रहकर उन्होंने दुष्कर तपस्या की। भोगोंका अनुभव प्राप्त करके भी मेरा मुँह बाघका-सा हो इस थोड़े दिनोंकी तपस्यासे ही भगवान् संतुष्ट हो गया। न जाने यह किस दुष्कर्मका फल उपस्थित हुआ गये। उन्होंने राजाके सात जन्मोकी आराधनाका स्मरण है। यही सोच-सोचकर मेरे मनको कभी शान्ति नहीं करके उन्हें स्वयं प्रकट हो प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उस दिन मिलती। ब्रह्मन् ! एक और भी कारण है, जिससे मेरा माघ शुक्लपक्षकी द्वादशी तिथि थी, सूर्य मकर-राशिपर मन व्याकुल हो रहा है। यह मेरी कल्याणमयी पत्नी बड़ी स्थित थे। भगवान् वासुदेवने बड़ी प्रसन्नताके साथ मधुरभाषिणी तथा सुन्दरी है। स्वर्गलोकमें शील, चक्रवर्ती नरेश पुरूरवापर शका जल छोड़ा और उन्हें उदारता, गुणसमूह, रूप और यौवनको सम्पत्तिद्वारा अत्यन्त सुन्दर एवं कमनीय रूप प्रदान दिया। वह रूप इसकी समानता करनेवाली एक भी स्त्री नहीं है। कहाँ इतना मनोहर था, जिससे देवलोककी नायिका उर्वशी भी तो यह देवमुखी सुन्दरी रमणी और कहाँ मेरे-जैसा आकृष्ट हो गयी और उसने पुरूरवाको पतिरूपमें प्राप्त व्याघ्रमुख पुरुष ? ब्रह्मन् ! मैं इसी बातकी चिन्ता करके करनेकी अभिलाषा की। इस प्रकार राजा पुरूरवा मन-ही-मन सदा जलता रहता हूँ। भगवानसे वरदान पाकर कृतकृत्य हो अपने नगरमें लौट भृगुजीने कहा-विद्याधरश्रेष्ठ ! पूर्वजन्ममें आये। विद्याधर ! कर्मको गति ऐसी ही है। इसे जानकर तुम्हारे द्वारा जो अनुचित कर्म हुआ है, वह सुनो। निषिद्ध भी तुम क्यों खिन्न होते हो? यदि तुम अपने मुखकी कर्म कितना ही छोटा क्यों न हो, परिणाममें वह भयङ्कर कुरूपता दूर करना चाहते हो तो मेरे कहनेसे शीघ्र ही हो जाता है। तुमने पूर्वजन्ममें मायके महीनेमें मणिकूट-नदीके जलमें माघस्रान करो। वह प्राचीन एकादशीको उपवास करके द्वादशीके दिन शरीरमें तेल पापोंका नाश करनेवाला है। तुम्हारे भाग्यसे माघ लगा लिया था। इसीसे तुम्हारा मुँह व्याघ्रके समान हो बिलकुल निकट है। आजसे पाँच दिनके बाद ही गया। पुण्यमयी एकादशीका व्रत करके द्वादशीको माघमास आरम्भ हो जायगा। तुम पौषके शुक्रपक्षको तेलका सेवन करनेसे पूर्वकालमें इलानन्दन पुरूरवाको एकादशीसे ही नीचे वेदीपर सोया करो और एक भी कुरूप शरीरकी प्राप्ति हुई थी। वे अपने शरीरको महीनेतक निराहार रहकर तीनों समय सान करो। कुरूप देख उसके दुःखसे बहुत दुःखी हुए और गिरिराज भोगोंको त्यागकर जितेन्द्रियभावसे तीनों काल भगवान् हिमालयपर जाकर गङ्गाजीके किनारे सान आदिसे पवित्र विष्णुकी पूजा करते रहो । विद्याधरश्रेष्ठ ! जिस दिन माघ हो प्रसत्रतापूर्वक कुशासनपर बैठे। राजाने अपनी सम्पूर्ण शुक्ला एकादशी आयेगी, उस दिनतक तुम्हारे सारे इन्द्रियोंको वशमें करके हृदयमें भगवान का ध्यान करना पाप जलकर भस्म हो जायेंगे। फिर द्वादशीके पवित्र आरम्भ किया। उन्होंने ध्यानमें देखा-भगवान्का दिनको मैं मन्त्रपूत कल्याणमय जलसे अभिषेक करके श्रीविग्रह नूतन नील मेघके समान श्याम है। उनके नेत्र तुम्हारा मुख कामदेवके समान सुन्दर कर दूंगा। फिर कमलादलके समान विशाल हैं। वे अपने हाथोंमें शङ्ख, देवमुख होकर इस सुन्दरीके साथ तुम सुखपूर्वक क्रीड़ा चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं। उनका श्रीअङ्ग करते रहना। पीताम्बरसे ढका है। वक्षःस्थलमें कौस्तुभमणि अपना विद्याधर ! मायके स्नानसे विपत्तिका नाश होता है प्रकाश फैला रही है तथा वे गलेमें वनमाला धारण किये और मायके स्रानसे पाप नष्ट हो जाते हैं। माघ सब हुए हैं। इस प्रकार श्रीहरिका चिन्तन करते हुए राजाने व्रतोसे बढ़कर है तथा यह सब प्रकारके दानोंका फल प्राणवायुके मार्गको भीतर ही रोक लिया और नासिकाके प्रदान करनेवाला है। पुष्कर, कुरुक्षेत्र, ब्रह्मावर्त, अग्रभागपर दृष्टि जमाये कुण्डलिनीके मुखको ऊपर पृथुदक, अविमुक्तक्षेत्र (काशी), प्रयाग तथा गङ्गा
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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