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________________ उत्तरखण्ड ] . वसिष्ठजीका दिलीपसे माघस्रानकी महिमा बताना . ८८५ .......... उद्यापन तथा भगवान् विष्णुको आराधना आदिके कहा था- 'जो मनुष्य मायके महीनेमें, जब सम्बन्धमें बहुत कुछ सुना है। अब माघस्रानका फल उषःकालको लालिमा बहुत अधिक हो, गाँवसे बाहर सुननेकी इच्छा है। मुने ! जिस विधिसे इसको करना नदी या पोखरेमें नित्य स्रान करता है, वह पिता और चाहिये, वह मुझे बताइये।' माताके कुलकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार करके स्वयं वसिष्ठजीने कहा-राजन् ! मैं तुम्हें माघस्नानका देवताओंके समान शरीर धारण कर स्वर्गलोकमें चला फल बतलाता हूँ, सुनो। जो लोग होम, यज्ञ तथा जाता है।' इष्टापूर्त कोंके बिना ही उत्तम गति प्राप्त करना चाहते दिलीपने पूछा-ब्रह्मन् ! ब्रह्मर्षि भृगुने किस हों, वे माघमें प्रातःकाल बाहरके जलमें स्नान करें। जो समय मणिपर्वतपर विद्याधरको धर्मोपदेश किया थागौ, भूमि, तिल, वस्त्र, सुवर्ण और धान्य आदि बतानेकी कृपा करें। वस्तुओंका दान किये बिना ही स्वर्गलोकमें जाना चाहते वसिष्ठजी बोले-राजन् ! प्राचीन कालमें एक हों, वे माघमें सदा प्रातःकाल स्रान करें। जो तीन-तीन समय बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं हुई। इससे सारी प्रजा राततक उपवास, कृच्छ और पराक आदि व्रतोंके द्वारा उद्विग्न और दुर्बल होकर दसों दिशाओंमें चली गयी। अपने शरीरको सुखाये बिना ही स्वर्ग पाना चाहते हों, उस समय हिमालय और विन्ध्यपर्वतके बीचका प्रदेश उन्हें भी माघमें सदा प्रातःकाल स्रान करना चाहिये। खाली हो गया। स्वाहा, स्वधा, वषट्कार और वैशाखमें जल और अनका दान उत्तम है, कार्तिकमे वेदाध्ययन-सब बंद हो गये। समस्त लोकमें उपद्रव तपस्या और पूजाकी प्रधानता है तथा मायमें जप, होम होने लगा। धर्मका तो लोप हो ही गया था, प्रजाका भी और दान-ये तीन बातें विशेष हैं। जिन लोगोंने माघमे अभाव हो गया। भूमण्डलपर फल, मूल, अत्र और प्रातःस्रान, नाना प्रकारका दान और भगवान् विष्णुका पानीकी बिलकुल कमी हो गयी। उन दिनों नाना प्रकारके स्तोत्र-पाठ किया है, वे ही दिव्यधाममें आनन्दपूर्वक वृक्षोंसे आच्छादित नर्मदा नदीके रमणीय तटपर महर्षि निवास करते हैं। प्रिय वस्तुके त्याग और नियमोंके भृगुका आश्रम था। वे उस आश्रमसे शिष्योसहित पालनसे माघ मास सदा धर्मका साधक होता है और निकलकर हिमालय पर्वतको शरणमें गये। वहाँ अधर्मकी जड़ काट देता है। यदि सकामभावसे कैलासगिरिके पश्चिममें मणिकूट नामका पर्वत है, जो माघस्नान किया जाय तो उससे मनोवाञ्छित फलको सोने और रत्नोंका ही बना हुआ है। उस परम रमणीय सिद्धि होती है और निष्कामभावसे नान आदि करनेपर श्रेष्ठ पर्वतको देखकर अकाल-पीड़ित महर्षि भृगुका मन वह मोक्ष देनेवाला होता है। निरन्तर दान करनेवाले, बहुत प्रसन्न हुआ और उन्होंने वहीं अपना आश्रम बना वनमें रहकर तपस्या करनेवाले और सदा अतिथि- लिया। उस मनोहर शैलपर वनों और उपवनोंमें रहते हुए सत्कारमें संलग्न रहनेवाले पुरुषोंको जो दिव्यलोक प्राप्त सदाचारी भृगुजीने दीर्घकालतक भारी तपस्या की। होते हैं, वे ही माघस्रान करनेवालोंको भी मिलते हैं। इस प्रकार जब ब्रह्मर्षि भृगुजी वहाँ अपने अन्य पुण्योंसे स्वर्गमें गये हुए मनुष्य पुण्य समाप्त होनेपर आश्रमपर निवास करते थे, एक समय एक विद्याधर वहाँसे लौट आते हैं। किन्तु माघस्नान करनेवाले मानव अपनी पत्रीके साथ पर्वतसे नीचे उतरा । वे दोनों मुनिके कभी वहाँसे लौटकर नहीं आते। माघस्नानसे बढ़कर पास आये और उन्हें प्रणाम करके अत्यन्त दुःखी हो एक कोई पवित्र और पापनाशक व्रत नहीं है। इससे बढ़कर ओर खड़े हो गये। उन्हें इस अवस्था देख ब्रह्मर्षिन कोई तप और इससे बढ़कर कोई महत्त्वपूर्ण साधन नहीं मधुर वाणीसे पूछा-'विद्याधर ! प्रसत्रताके साथ है। यही परम हितकारक और तत्काल पापोंका नाश बताओ, तुम दोनों इतने दुःखी क्यों हो?' करनेवाला है। महर्षि भृगुने मणिपर्वतपर विद्याधरसे विद्याधरने कहा-द्विजश्रेष्ठ ! मेरे दुःखका
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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