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________________ पातालखण्ड] * सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन . 445 AJAL आश्रमसे निकलते देखा, तो वे भी उसके पीछे-पीछे बहुमूल्य रत्न एवं धन भेंट देते थे। इस प्रकार अश्वके चल दिये। कुछ लोग हाथीपर थे और कुछ लोग मार्गपर जाते हुए शत्रुघ्नने एक बहुत ऊँचा पर्वत देखा। रथोंपर / कुछ घोड़ोंपर सवार थे और कुछ लोग पैदल उसे देखकर उनका मन आश्चर्यचकित हो गया; अतः वे ही जा रहे थे। शत्रुघ्नने भी मन्त्रिवर सुमतिके साथ मन्त्री सुमतिसे बोले-'मन्त्रिवर ! यह कौन-सा पर्वत घोड़ोंसे सुशोभित होनेवाले रथपर बैठकर बड़ी शीघ्रताके है, जो मेरे मनको विस्मयमें डाल रहा है। इसके बड़े-बड़े साथ यज्ञसम्बन्धी अश्वका अनुसरण किया। वह घोड़ा शिखर चाँदीके समान चमक रहे हैं। मार्गमें इस पर्वतकी आगे बढ़ता हुआ राजा विमलके रत्नातट नामक नगरमें बड़ी शोभा हो रही है। मुझे तो यह बड़ा अद्भुत जान जा पहुँचा / राजाने जब अपने सेवकके मुँहसे सुना कि पड़ता है। क्या यहाँ देवताओंका निवासस्थान है या यह श्रीरघुनाथजीका श्रेष्ठ अश्व सम्पूर्ण योद्धाओंके साथ उनकी क्रीड़ास्थली है? यह पर्वत अपनी सब प्रकारकी अपने नगरके निकट आया है, तो वे शत्रुघ्रके पास गये शोभासे मेरे मनको मोहे लेता है।' और उन्हें प्रणाम करके अपना रत्न, कोष, धन और सारा शत्रुघ्नजीका यह प्रश्न सुनकर मन्त्री सुमति, जिनका राज्य सौंपते हुए सामने खड़े होकर बोले-'मैं कौन-सा चित्त सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लगा रहता था, बोले-राजन् ! हमलोगोंके सामने यह नीलपर्वत शोभा पा रहा है। इसके चारों ओर फैले हुए बड़े-बड़े शिखर स्फटिक आदि मणियोंके समूह हैं; अतएव वे बड़े मनोहर प्रतीत होते हैं। पापी और पर-स्त्री-लम्पट मनुष्य इस पर्वतको नहीं देख पाते। जो नीच मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके गुणोंपर विश्वास या आदर नहीं करते, सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए श्रौत और स्मार्त धोको नहीं मानते तथा सदा अपने बौद्धिक तर्कके आधारपर ही विचार करते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। नील और लाहकी बिक्री करनेवाले मनुष्य, घी आदि बेचनेवाला ब्राह्मण तथा शराबी मनुष्य भी इसके दर्शनसे वञ्चित रहते हैं। जो पिता अपनी रूपवती कन्याका किसी कुलीन वरके साथ ब्याह नहीं करता, बल्कि पापसे मोहित होकर धनके लोभसे उसको बेच देता है, उसे भी इसका दर्शन नहीं होता / जो मनुष्य उत्तम कुल और शीलसे युक्त सती साध्वी स्त्रीको कार्य करू-मेरे लिये क्या आज्ञा होती है ?' शत्रुघ्नने कलङ्कित करता है तथा भाई-बन्धुओंको न देकर स्वयं ही भी उन्हें अपने चरणोंमें नतमस्तक देख दोनों भुजाओंसे मीठे पकवान उड़ाता है, जो ब्राह्मणका धन हड़प लेनेके उठाकर छातीसे लगा लिया। इसके बाद राजा विमल भी लिये जालसाजी करता है, रसोईमें भेद करता है तथा जो पुत्रको राज्य देकर अनेको धनुर्धर योद्धाओंसहित दूषित विचार रखनेके कारण केवल अपने लिये खिचड़ी शत्रुघ्रजीके साथ गये। सबके मन और कानोंको प्रिय या खीर बनाता है, वह भी इस पर्वतको नहीं देख पाता। लगनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका मधुर नाम सुनकर प्रायः महाराज ! जो मध्याह्नकालमें भूखसे पीड़ित होकर आये सभी राजा उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको प्रणाम करते और हुए अतिथियोंका अपमान करते हैं, दूसरोंके साथ
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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