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________________ * अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त परापुराण विश्वासघात करते रहते हैं तथा जो श्रीरघुनाथजीके रहनेवाले थे। वैश्य भी व्याज, खेती और व्यापार भजनसे विमुख होते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं आदि शुभ वृत्तियोंसे जीविका चलाते हुए निरन्तर होता। यह श्रेष्ठ पर्वत बड़ा ही पवित्र है, पुरुषोत्तमका श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें अनुराग रखते थे। शूद्रनिवासस्थान होनेसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है। जातिके मनुष्य रात-दिन अपने शरीरसे ब्राह्मणोंकी सेवा अपने दर्शनसे यह मनोहर शैल हम सब लोगोंको पवित्र करते और जिह्वासे 'राम-राम' की रट लगाये रहते थे। कर रहा है। देवताओंके मुकुटोंसे जिनके चरणोंकी पूजा वहाँ नीच श्रेणीके मनुष्योंमें भी कोई ऐसा नहीं था, जो होती है-जहाँ देवता अपने मुकुट-मण्डित मस्तक मनसे भी पाप करता हो। उस नगरीमें दान, दया, दम झुकाया करते हैं, पुण्यात्मा पुरुष ही जिनका दर्शन पानेके और सत्य-ये सदा विराजमान रहते थे। कोई भी अधिकारी है, वे पुण्य-प्रदाता भगवान् पुरुषोत्तम इस मनुष्य ऐसी बात नहीं बोलता था, जो दूसरोंको कष्ट पर्वतपर विराजमान हैं। वेदकी श्रुतियाँ 'नेति-नेति' पहुँचानेवाली हो। वहाँके लोग न तो पराये धनका लोभ कहकर निषेधकी अवधिरूपसे जिनको जानती हैं, रखते और न कभी पाप ही करते थे। इस प्रकार राजा इन्द्रादि देवता भी जिनके चरणोंकी रज ढूँढ़ा करते हैं फिर रत्नग्रीव प्रजाका पालन करते थे। वे लोभसे रहित होकर भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त नहीं होती तथा विद्वान् पुरुष केवल प्रजाकी आयके छठे अंशको 'कर' के रूपमें वेदान्त आदिके महावाक्योद्वारा जिनका बोध प्राप्त करते ग्रहण करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं लेते थे। इस हैं, वे ही श्रीमान् पुरुषोत्तम इस महान् पर्वतपर विराज रहे तरह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन और सब प्रकारके हैं। जो इस नीलगिरिपर चढ़कर भगवान्को नमस्कार भोगोंका उपभोग करते हुए राजाके अनेकों वर्ष व्यतीत करता और पुण्य कर्म आदिके द्वारा उनकी पूजा करके हो गये। एक दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विशालाक्षीसे, उनका प्रसाद ग्रहण करता है, वह साक्षात् भगवान् जो पातिव्रत्य-धर्मका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, चतुर्भुजका स्वरूप हो जाता है। कहा-'प्रिये ! अब अपने पुत्र प्रजाकी रक्षाका भार महाराज ! इस विषय में जानकार लोग एक प्राचीन संभालनेवाले हो गये / भगवान् महाविष्णुके प्रसादसे मेरे इतिहास कहा करते हैं, उसको सुनो। राजा रत्नग्रीवको पास किसी बातकी कमी नहीं है। अब मेरे मनमें केवल अपने परिवारके साथ ही जो 'चार भुजा' आदि एक ही अभिलाषा रह गयी है, वह यह कि मैंने भगवान्का सारूप्य प्राप्त हुआ था, उसीका इस आजतक किसी परम कल्याणमय उत्तम तीर्थका सेवन उपाख्यानमें वर्णन है। ऐसा सौभाग्य देवता और नहीं किया। जो मनुष्य जन्मभर अपना पेट ही भरता दानवोंके लिये भी दुर्लभ है। यह आश्चर्यपूर्ण वृत्तान्त इस रहता है, भगवानकी पूजा नहीं करता वह बैल माना गया प्रकार है-तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो काञ्ची नामकी है, इसलिये कल्याणी ! मैं राज्यका भार पुत्रको सौपकर नगरी है, वह पूर्वकालमें बड़ी सम्पन्न-अवस्थामें थी, अब कुटुम्बसहित तीर्थयात्राके लिये चलना चाहता हूँ।' वहाँ बहुत अधिक मनुष्योंकी आबादी थी। सेना और ऐसा निश्चय करके उन्होंने सन्ध्याकालमें भगवान्का सवारी सभी दृष्टियोंसे काञ्ची बड़ी समृद्धिशालिनी पुरी ध्यान किया और आधी रातको सोते समय स्वप्रमें थी। वहाँ ब्राह्मणोचित छः कर्मों में निरन्तर लगे रहनेवाले एक श्रेष्ठ तपस्वी ब्राह्मणको देखा। फिर सबेरे उठकर श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे, जो सब प्राणियोंके हितमें उन्होंने सन्ध्या आदि नित्यकर्म पूरे किये और सभामें संलग्न और श्रीरामचन्द्रजीके भजनके लिये सदा जाकर मन्त्रीजनोंके साथ वे सुखपूर्वक विराजमान हुए। उत्कण्ठित रहनेवाले थे। वहाँकै क्षत्रिय युद्धमें लोहा इतनेमें ही उन्हें एक दुर्बल शरीरवाले तपस्वी ब्राह्मण लेनेवाले थे। वे संग्राममें कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। दिखायी दिये, जो जटा, वल्कल और कौपीन धारण परायी स्त्री, पराये धन और परद्रोहसे वे सदा दूर किये हुए थे। उनके हाथमें एक छड़ी थी तथा अनेकों
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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