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________________ * अर्जयस्व हषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् . [संक्षिप्त पद्यपुराण SAXE शरीरको पवित्र करूँगा तथा उनकी अत्यन्त विचित्र बहुत प्रसन्न हुए और प्रेमसे विह्वल होकर उन्होंने उनके वार्ताओंका वर्णन करके अपनी रसनाको पावन बनाऊँगा।' A TTA इस प्रकारकी बातें करते-करते श्रीरामके चरणोंका स्मरण होनेसे महर्षिका प्रेम-भाव जाग्रत् हो उठा। उनकी वाणी गदगद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। वे मुनियोंके सामने ही अश्रुपूर्ण कण्ठसे पुकारने लगे-हे श्रीरामचन्द्र ! हे रघुनाथ ! हे धर्ममूर्ते ! हे / भक्तोंपर दया करनेवाले परमेश्वर ! इस संसारसे मेरा उद्धार कीजिये।' इतना कहते-कहते महर्षि ध्यानमग्न हो गये, उन्हें अपने-परायेका ज्ञान न रहा। उस समय शत्रुनने मुनिसे कहा-'स्वामिन् ! आप हमारे श्रेष्ठ यज्ञको अपने चरणोंकी धूलिसे पवित्र कीजिये। सब लोगोंके द्वारा एकमात्र पूजित होनेवाले महाबाहु श्रीरघुनाथजीका भी बड़ा सौभाग्य है कि वे आप-जैसे महात्माके अन्तःकरणमें निवास करते हैं।' शत्रुनके ऐसा कहनेपर मुनिवर च्यवन आनन्दमग्न हो गये और अपने सम्पूर्ण अग्नियोंको साथ ले परिवारसहित वहाँसे चल दिये। उन्हें पैदल जाते देख और श्रीरामचन्द्रजीका भक्त लिये अर्ध्य-पाद्य आदि अर्पण किया। तत्पश्चात् वे जान हनुमान्जीने शत्रुघ्नसे विनयपूर्वक कहा- बोले-'मुनिश्रेष्ठ ! इस समय आपका दर्शन पाकर मैं 'स्वामिन् ! यदि आप कहें तो महापुरुषोंमें श्रेष्ठ इन धन्य हो गया। आपने सब सामग्रियोसहित मेरे यज्ञको राम-भक्त महर्षिको मैं ही अपनी पुरीमें पहुँचा दूं।' वानर पवित्र कर दिया।' वीरके ये उत्तम वचन सुनकर शत्रुघ्नने उन्हें आज्ञा भगवान्का यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवन बहुत दी-'हनुमान्जी ! जाइये, मुनिको पहुँचा आइये। तब सन्तुष्ट हुए। प्रेमोद्रेकके कारण उनके शरीरमें रोमाञ्च हो हनुमान्जीने मुनिको कुटुम्बसहित अपनी पीठपर बिठा आया। वे बोले-'प्रभो! आप ब्राह्मणोंपर प्रेम लिया और सर्वत्र विचरनेवाले वायुकी भांति उन्हें शीघ्र रखनेवाले और धर्ममार्गके रक्षक है; अतः आपके द्वारा ही अयोध्या पहुंचा दिया। मुनिको आया देख, श्रीराम ब्राह्मणका सम्मान होना उचित ही है।' सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना शेषजी कहते हैं-मुने ! महर्षि च्यवनके तपोबलसे हीन मनुष्योंकी भोगेच्छा !' इस प्रकार सोचते अचिन्तनीय तपोबलको देखकर शत्रुघ्नने विश्व-वन्दित हुए शत्रुघ्नने च्यवन मुनिके आश्रमपर थोड़ी देरतक ब्राह्मबलकी बड़ी प्रशंसा की। वे मन-ही-मन कहने ठहरकर जल पीया और सुख एवं आरामका अनुभव लगे-'कहाँ तो विशुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंको किया। उनका घोड़ा पुण्यसलिला पयोष्णी नदीका जल स्वतः प्राप्त होनेवाली महान् भोगोंकी सिद्धि और कहाँ पीकर आगेके मार्गपर चल पड़ा। सैनिकोंने जब उसे
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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