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________________ सृष्टिखण्ड ] ********* चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन • ********..........................................***** चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन भीष्मजीने पूछा-समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता पुलस्त्यजी ! चन्द्रवंशकी उत्पत्ति कैसे हुई ? उस वंशमें कौन-कौन से राजा अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले हुए ? पुलस्त्यजीने कहा- राजन् ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने महर्षि अत्रिको सृष्टिके लिये आज्ञा दी। तब उन्होंने सृष्टिकी शक्ति प्राप्त करनेके लिये अनुत्तर* नामका तप किया। वे अपने मन और इन्द्रियोंके संयममें तत्पर होकर परमानन्दमय ब्रह्मका चिन्तन करने लगे। एक दिन महर्षिके नेत्रोंसे कुछ जलकी बूँदें टपकने लगीं, जो अपने प्रकाशसे सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को प्रकाशित कर रही थीं दिशाओं [की अधिष्ठात्री देवियों] ने स्त्रीरूपमें आकर पुत्र पानेकी इच्छासे उस जलको ग्रहण कर लिया। उनके उदरमें वह जल गर्भरूपसे स्थित हुआ। दिशाएँ उसे धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं; अतः उन्होंने उस गर्भको त्याग दिया। तब ब्रह्माजीने उनके छोड़े हुए गर्भको एकत्रित करके उसे एक तरुण पुरुषके रूपमें प्रकट किया, जो सब प्रकारके आयुधोंको धारण करनेवाला था। फिर वे उस तरुण पुरुषको देवशक्तिसम्पन्न सहस्र नामक रथपर बिठाकर अपने लोकमें ले गये। तब ब्रह्मर्षियोंने कहा - 'ये हमारे स्वामी हैं। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ उनकी स्तुति करने लगीं। उस समय उनका तेज बहुत बढ़ गया। उस तेजके विस्तारसे इस पृथ्वीपर दिव्य औषधियाँ उत्पन्न हुई। इसीसे चन्द्रमा ओषधियोंके स्वामी हुए तथा द्विजों में भी उनकी गणना हुई। वे शुरूपक्षमें बढ़ते और कृष्णपक्षमें सदा क्षीण होते रहते हैं। कुछ कालके बाद प्रचेताओंके पुत्र प्रजापति दक्षने अपनी सत्ताईस कन्याएँ जो रूप और लावण्यसे युक्त तथा अत्यन्त तेजस्विनी थीं, चन्द्रमाको पत्नीरूपमें अर्पण कीं । तत्पश्चात् चन्द्रमाने केवल श्रीविष्णुके ध्यानमें तत्पर होकर चिरकालतक बड़ी भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर परमात्मा ३७ श्रीनारायणदेवने उनसे वर माँगनेको कहा। तब चन्द्रमाने यह वर माँगा - 'मैं इन्द्रलोकमें राजसूय यज्ञ करूँगा । उसमें आपके साथ ही सम्पूर्ण देवता मेरे मन्दिरमें प्रत्यक्ष प्रकट होकर यज्ञभाग ग्रहण करें। शूलधारी भगवान् श्रीशङ्कर मेरे यज्ञकी रक्षा करें।' 'तथास्तु' कहकर भगवान् श्रीविष्णुने स्वयं ही राजसूय यज्ञका समारोह किया। उसमें अत्रि होता, भृगु अध्वर्यु और ब्रह्माजी उगाता हुए। साक्षात् भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा बनकर यज्ञके द्रष्टा हुए तथा सम्पूर्ण देवताओंने सदस्यका काम सँभाला। यज्ञ पूर्ण होनेपर चन्द्रमाको दुर्लभ ऐश्वर्य मिला और वे अपनी तपस्याके प्रभावसे सातों लोकोंके स्वामी हुए। चन्द्रमासे बुधकी उत्पत्ति हुई। ब्रह्मर्षियोंके साथ ब्रह्माजीने बुधको भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्त करके उन्हें ग्रहोंकी समानता प्रदान की। बुधने इलाके गर्भसे एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया, जिसने सौसे भी अधिक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान किया। वह पुरूरवाके नामसे विख्यात हुआ। सम्पूर्ण जगत् के लोगोंने उसके सामने मस्तक झुकाया । पुरूरवाने हिमालयके रमणीय शिखरपर ब्रह्माजीकी आराधना करके लोकेश्वरका पद प्राप्त किया। वे सातों द्वीपोंके स्वामी हुए। केशी आदि दैत्योंने उनकी दासता स्वीकार की। उर्वशी नामकी अप्सरा उनके रूपपर मोहित होकर उनकी पत्नी हो गयी। राजा पुरूरवा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी राजा थे; उन्होंने सातों द्वीप, वन, पर्वत और काननोंसहित समस्त भूमण्डलका धर्मपूर्वक पालन किया। उर्वशीने पुरूरवाके वीर्यसे आठ पुत्रोंको जन्म दिया। उनके नाम ये हैं-आयु, दृढायु, वश्यायु, धनायु, वृत्तिमान्, वसु, दिविजात और सुबाहु — ये सभी दिव्य बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। इनमेंसे आयुके पाँच पुत्र हुए- नहुष, वृद्धशर्मा, रजि दम्भ और विपाप्मा । ये पाँचों वीर महारथी थे। रजिके सौ पुत्र हुए, जो राजेयके नामसे विख्यात थे। राजन् ! रजिने - • जिससे बड़ा दूसरा कोई तप न हो, वह लोकोत्तर तपस्या ही 'अनुत्तर' तपके नामसे कही गयी है।
SR No.034102
Book TitleSankshipta Padma Puran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUnknown
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages1001
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size73 MB
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